Sunday, June 5, 2011

डॉ.वेद का व्‍यथित 'अन्‍तर्मन' : राजेश उत्‍साही

पर्यावरण दिवस पर डॉ.वेद व्‍यथित का कविता संग्रह ‘अन्‍तर्मन’ पलटते हुए उनकी दो कविताओं पर फिर से नजर अटक गई। 

पहली है ‘समीर’
जल के छूने भर से
शीतल हो जाती है हवा
शान्‍त हो जाता है उसका मतस्‍ताप
तब सुन्‍दर समीर
बन जाती है वह
फुहार बनकर
लुटा देती है अपना सर्वस्‍व
और समाप्‍त कर देती है
अपना अंह
जल के छूने लेने भर से
कितनी भोली है वह
कितनी सह्दया है
और कितनी समर्पिता है
वह भोली सी हवा
प्‍यारी सी हवा।

हवा और पानी का यह रिश्‍ता प्रकृति में हमेशा से ही रहा है। दोनों जब शांत होते हैं तो जीवन रचते हैं। लेकिन जब क्रोधित होते हैं तो जीवन को तहस-नहस कर देते हैं। लेकिन उनकी इन दोनों प्रतिक्रियाओं में मानव मात्र की गतिविधियों का भी बड़ा योगदान है।

दूसरी कविता है ‘उपयुक्‍त’

चिडि़या को पता है कि
कौन सा तिनका
उपयुक्‍त है उसके घोंसले के लिए
वह उठाती है अपनी चोंच से
उसी तिनके को
क्‍योंकि इसी पर टिकी है
उसकी भावी गृहस्‍थी
और उसके अंडजों का भविष्‍य
वह खूब समझती है
अपने समाज की मर्यादा।
उसकी नैतिकता तथा
और भी बहुत से तौर तरीके
इसमें शामिल नहीं करती है वह
(ऐसी) आधुनिकता या खुलापन
जो विकास के बहाने देता है
अनैतिक होते रहने की छूट
इसलिए वह नहीं उठाती है
ऐसा एक भी तिनका जो उसके घोंसले को तबाह (न) कर दे
आग की चिंगारी की भांति
क्‍योंकि वह जानती है अच्‍छी तरह
अपने घोंसले के लिए
उपयुक्‍त तिनका।

इस कविता में ऊपर कोष्‍टक में जो 'ऐसी' शब्‍द आया है, वह मैंने जोड़ा है। मेरे विचार से हर विकास या आधुनिक विचार बुरा नहीं होता है। नीचे एक और जगह कोष्‍टक में 'न' आया है। यहां यह मूल कविता में है, पर संपादकीय नजर से देखें तो इस शब्‍द को यहां नहीं होना चाहिए। क्‍यों‍कि इससे अर्थ का अनर्थ हो रहा है।

यह कविता कवि ने बहुत सीमित उद्देश्‍य से लिखी है। पर आज हम अगर पर्यावरण के संदर्भ में इसे देखें तो इसमें छिपे गहर निहितार्थ नजर आते हैं। विकास और आधुनिकता के नाम पर हम अपने आशियाने बनाने के लिए जिस तरह के तिनके चुन रहे हैं, उनके संदर्भ में पर्यावरण का ध्‍यान रख रहे हैं या नहीं। चाहे वे बड़े बांध हों, नाभिकीय बिजली घर हों, कल कारखाने हों या फिर लगातार आसमान छूते कंक्रीट के जंगल। काश कि हम भी ‘चिडि़या’ की तरह सोच पाते।
*
वेद जी के इस संग्रह में 80 से अधिक कविताएं हैं। संग्रह का मूल स्‍वर स्‍त्री के इर्द-गिर्द घूमता है। वे स्‍त्री के बहाने प्रकृति की बात भी करते हैं,उससे तुलना करते हैं। कहीं वे स्‍त्री को प्रकृति के समकक्ष रखते हैं तो कहीं प्रकृति को स्‍त्री के रूप में देखते हैं। ऐसा करते हुए वे दोनों के ही बहुत सारे पहलू नए नए अर्थों में सामने लाते हैं। उनके इस संग्रह पर मैंने एक विस्‍तृत समीक्षा अपने ब्‍लाग गुल्‍लक पर पिछले दिनों प्रकाशित की थी। संग्रह की कुछ और कविताएं तथा उन पर चर्चा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं-
*
105 पेजों में फैले हार्डबाउंड कविता संग्रह की छपाई तथा कागज आदि संतोष जनक है। इसे दिल्‍ली के बाल-सुलभ प्रकाशन,डी-1/8,पूर्वी गोकलपुर,लोनी रोड दिल्‍ली 110094 ने प्रकाशित किया है। सम्‍पर्क के लिए प्रकाशक का मोबाइल नं है 9818628554 । कीमत है रुपए 150.00 । 
0 राजेश उत्‍साही 


Saturday, April 30, 2011

लोहे के मर्द


पुरुष वीर बलवान,
देश की शान,
हमारे नौजवान
घायल होकर आये हैं।
कहते हैं, ये पुष्प, दीप,
अक्षत क्यों लाये हो?
हमें कामना नहीं सुयश-विस्तार की,
फूलों के हारों की, जय-जयकार की।
तड़प रही घायल स्वदेश की शान है।
सीमा पर संकट में हिन्दुस्तान है।
ले जाओ आरती, पुष्प, पल्लव हरे,
ले जाओ ये थाल मोदकों ले भरे।
तिलक चढ़ा मत और हृदय में हूक दो,
दे सकते हो तो गोली-बन्दूक दो।
....राष्ट्रकवि श्री रामधारी सिंह दिनकर जी 
प्रकाशित :१९६3
संग्रह:परशुराम की प्रतीक्षा 



Saturday, April 23, 2011

मधुर-मधुर मेरे दीपक जल / डा.महादेवी वर्मा की प्रतिनिधि कविता



रचनाकार:
प्रकाशक:
लोकभारती प्रकाशन
वर्ष:
मार्च ०४, २००४
भाषा:
हिन्दी
विषय:
कविता संग्रह
शैली
गीत

मूल्य
रु. 110


मैं विगत सप्ताह अपने बेटे की हिन्दी पाठ्य-पुस्तक में डा.महादेवी वर्मा जी की एक बडी ही सुन्दर कविता मधुर-मधुर मेरे दीपक जल पढा। वह अपनी वर्षान्त परीक्षा के लिए इस कविता के कुछ पदों के भावार्थ समझने में मेरी सहायता चाहता था।

इस कविता को पढने के उपरान्त मुझे यह तो ठीक-ठीक ज्ञात नहीं कि मैं उसको किस हद तक इस सुन्दर एवं अति रहस्यमयी आध्यात्मिक अर्थों वाली गूढ कविता का भावार्थ सफलतापूर्वक समझा पाया, किन्तु यह अवश्य है कि स्वयं मुझे  इस कविता को पढने के उपरान्त विलक्षण आत्मिक जागृति व संतुष्टि की प्राप्ति हुई।

Tuesday, April 12, 2011

औरत का कोई देश नहीं

AKKDNयह शीर्षक है तस्लीमा नसरीन की चर्चित किताब का ! अभिनन्दन का उद्योग-पर्व के बाद अपनी अस्वस्थता के चलते पुस्तकायन पर मेरा योगदान नहीं सँभव हुआ, इसी सँदर्भ में यह जिक्र कर देना प्रासँगिक रहेगा कि, यहाँ पर हम अपनी पढ़ी हुई किताबों की चर्चा करते हैं, उसके गुण-दोष की विवेचना इस आशय से करते हैं कि ऎसा पुस्तक परिचय हम अपने बँधुओं से साझा कर सकें.. न  कि उस तरह जैसा आशीष अनचिन्हार जी ने हमसे अपेक्षा की है ! आज जिक्र है मुक्त चिन्तन की नायिका तसलीमा नसरीन के लेख सँग्रह औरत का कोई देश नहीं का ,  मूल बाँग्ला से सुशील गुप्ता द्वारा अनुदित यह सँग्रह वाणी प्रकाशन द्वारा हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया गया है । लेखिका के अनुसार यह विभिन्न अख़बारों में उनके द्वारा लिखे गये कॉलमों के सँग्रह की पाँचवीं कड़ी है !
इसकी भूमिका में मोहतरमा यह कहती पायी जाती हैं कि देश का अर्थ यदि सुरक्षा है, देश का अर्थ यदि आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता । धरती पर कोई औरत आज़ाद नहीं है, धरती   पर कहीं कोई औरत सुरक्षित नहीं है । बकौल स्वयँ उनके जो तस्वीर नज़र आती है, वह आधी अधूरी है, इसलिये ( फिलहाल ) उन्होंने अँधेरे को थाम लिया है ।
उनकी सोच सही दिशा में हो सकती थी, यदि वह उन कारणों की पड़ताल को आगे बढ़ातीं, जिसे उन्हें रेखाँकित किया है..

Thursday, April 7, 2011

किताबों का खजाना :राजेश उत्‍साही

अरविन्‍द गुप्‍ता नाम है एक ऐसे व्‍यक्ति का जिनका जीवन बच्‍चों और बस बच्‍चों के लिए समर्पित है। मैं उन्‍हें 1980 के आसपास से जानता हूं। बहुत साल तक वे दिल्‍ली में थे। पर पिछले लगभग पंद्रह या उससे भी अधिक साल से वे IUCAA, Pune University, Pune में बच्‍चों के एक केन्‍द्र के कर्ता-धर्ता हैं। 
बच्‍चों के लिए सस्‍ते और विज्ञान की समझ को पुख्‍ता करने वाले खिलौने बनाने का उन्‍हें जुनून रहा है। इन खिलौनों को बनाने की कई किताबें उन्‍होंने लिखी हैं।  इन खिलौनों को बनाने और काम करने की तरकीबें उनकी साइट पर मौजूद हैं। कुछ उपयोगी फिल्‍में भी हैं।

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