Tuesday, March 8, 2011

पितृसत्‍ता के नए रूप : स्‍त्री और भूमंडलीकरण

"भूमंडलीकरण कहता है कि उसके तहत हुआ बाजारों का एकीकरण लैंगिक रूप से तटस्‍थ है अर्थात वह मर्दवादी नहीं है। यह एक ऐसा दावा है जो कभी पुनर्जागरण के मनीषियों ने भी नहीं किया था। भूमंडलीकरण इससे भी एक कदम आगे जाकर कहता है कि नारीवाद की किसी किस्‍म से कोई ताल्‍लुक न रखते हुए भी उसने स्‍त्री के शसक्‍तीकरण के क्षेत्र में अन्‍यतम उपलब्धियॉं हासिल की हैं। सवाल यह है कि परिवार, विवाह की संस्‍था, धर्म और परंपरा को कोई क्षति पहुँचाने का कार्यक्रम अपनाए बिना यह चमत्‍कार कैसे हुआ? स्‍त्री को प्रजनन करने या न करने का अधिकार नहीं मिला, न ही उसके प्रति लैगिक पूर्वाग्रहों का शमन हुआ, न ही उसे इतरलिंगी सहवास की अनिवार्यताओं से मुक्ति मिली और न ही उसकी देह का शोषण खत्‍म हुआ - फिर बाजार ने यह सबलीकरण कैसे कर दिखाया ? 


खास बात यह है कि भूमंडलीकरण खुद को लोकतंत्र का पैरोकार बताता है और बाजार की चौधराहट का कट्टर समर्थक होते हुए भी एक सीमा तक राज्‍य के हस्‍तक्षेप के लिए गुंजाइश छोडता है; लेकिन आधुनिकतावाद के गर्भ से निकली अधिकतर संस्‍थाओं और विचारों को पुष्‍ट करनेवाला यह भूमंडलीकरण नारीवाद की उपेक्षा करता है। दरअसल इसका सूत्रीकरण अस्‍सी और नब्‍बे के उन दशकों में हुआ जिनमें नारीवाद अपने ही गतिरोधों से जूझ रहा था। इसी जमाने में भूमंडलीकरण ने आधुनिक विचारधाराओं में सिर्फ नारीवाद को ही असफल घोषित किया और इस तरह पूँजीवादी आधुनिकता ने पहली बार पितृसत्‍ता के खिलाफ संघर्ष का दायित्‍व पूरी तरह त्‍याग दिया। 
                                                                                                                          - अभयकुमार दुबे


मार्च 2001 में प्रकाशित 'हंस' स्‍त्री-भूमंडलीकरण: पितृसत्‍ता के नये रूप' विशेषांक में यह शिनाख्‍त करने की कोशिश की गई थी कि श्रमिकों की एक विशाल फौज के रूप में स्‍त्री को आत्‍मसात करनेवाले भूमंडलीकरण में नर-नारी संबंधों के विभिन्‍न समीकरण क्‍या हैं और उसके तत्‍वावधान में स्‍त्री कितने प्रतिशत व्‍यक्ति बनी है और कितने प्रतिशत वस्‍तु। पितृसत्‍ता के नये रूप : स्‍त्री और भूमंडलीकरण', कुछ रचनाओं को छोडकर उसी अंक का पुस्‍तक रूप है। 

यह पुस्‍तक 18 लेखों का संग्रह है। जिनके शीर्षक और लेखक क्रमवार निम्‍नानुसार हैं। 

1. आलोचना का समय : अभयकुमार दुबे 


2. हंस की नारीवादी उडान : प्रभा खेतान 


3. पूँजी की ललमुनिया : अनामिका 


4. अन्‍दर के पानियों का सपना : मृणाल पांडे 


5. एक अधखुला क्षण : सौन्‍दर्य मिथक की द्वन्‍द्वात्‍मकता : सुधीश पचौरी 


6. भूमंडलीकरण का प्रतिभूगोल - पितृसत्‍ता के नये रूप : अभयकुमार दुबे 
                    अफसर औरत / क्‍या आपने गणित और विज्ञान पढा है ?
                    मैनेजर औरत / दफ्तर की पोर्नोग्राफी और घर में लालन-पालन 
                    मर्द का रवैया / कामयाब औरतें तो मंगल गृह से आती हैं ! 
                    बेचारी लिजा रॉय और वह शैतान एलिजाबेथ हर्ली 
                    ललिताजी बनाम बिकनी वाली सुन्‍दरी 
                    पिटती हुई औरत : 'मेल फेमिनिज्‍म' और बिम्‍बोवाद 

7. समय समय की शंकुतला : रोमिला थापर 


8. इक्‍कीसवीं सदी का नारीवाद : नाओमी वुल्‍फ 
                                    जैंडर - क्‍वैक 
                                    उत्‍पीडित नारीवाद 
                                    शक्ति आधारति नारीवाद 
                                    फेमिनिस्‍ट यानी इंसान 


9.   करक्‍कु जैसा जीवन : बामा 


10. आकाश चाहनेवाली लडकी के सवाल : रोहिणी अग्रवाल 


11. मुसलमान स्त्रियॉं - दुख और ऑंसू : क्षमा शर्मा 


12. नक्‍सलवादी नारियॉं / एक 
                        लीला किसान : वासंती रमन 


13. नक्‍सलवादी नारियॉं / दो 
                         वायनाड की स्‍मृतियॉं : के. अजिता 


14. नक्‍सलवादी नारियॉं / तीन 
                         श्रीकाकुलम में संघर्ष : यू. विंध्‍या 


15. सबल स्‍त्री का शास्‍त्र : अशोक झा 


16. महिला आरक्षण - मॉंग नहीं अधिकार है : विजय शर्मा 
                                 विधेयक की समस्‍याऍं 
                                 विधेयक की खूबियॉं 
                                 वैकल्पिक सुझाव       
                          
17. तथ्‍य-सत्‍य - औरत की जगह : अलका आर्य 


18. स्‍त्री की तरह देखना (चित्रकार अर्पिता सिंह से मंगलेश डबराल की बातचीत )

यह पुस्‍तक स्‍त्री-विमर्श के विविध आयामों को खोलकर सामने रखती है। क्‍योंकि पुस्‍तक किसी  एक व्‍यक्ति   की लिखी हुई  न होकर  विभिन्‍न  लेखक / लेखिकाओं के लेखों का संग्रह है जो उन्‍होंने इस विषय के विशेषांक के लिए लिखे थे इ‍सलिए यह और भी रुचिकर और उपयोगी हो गई है।  सभी लेखकों ने अलग पक्षों की गहराई में जाकर तथ्‍यात्‍मक विश्‍लेषण के द्वारा अपनी बात कही है। कई लेखों में शोधपरक जान‍कारियॉं ऐतिहासकि तथ्‍यों के साथ दी गई हैं। 

भूमंडलीकरण के दौर में स्‍त्री-विमर्श को समझने के लिए यह एक बहुत ही उपयोगी किताब है। 

"लकडहारे यदि जंगल 
की तरफ जाऍं 
तो जंगल अपने ही 
पेडों के घेरे में 
बचने की को‍शिश करते हुए 
किसी अन्तिम पेड में छिपा रहेगा "


                          -   विनोद कुमार शुक्‍ल 


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पुस्‍तक का नाम : पितृसत्‍ता के नये रूप / स्‍त्री और भूमंडलीकरण

सम्‍पादक : राजेन्‍द्र यादव : प्रभा खेतान : अभयकुमार दुबे

प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्‍ली - 110002

पहला संस्‍करण : 2003
(c) अक्षर प्रकाशन प्रा.लि.

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6 comments:

  1. पूँजी का सामाजिक पहलू।

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  2. अन्यथा न लिया जाय तो मैं एक अनुरोध करता हूँ कि पितृ-सत्ता की पूर्ववत् स्थिति और नारी सबलीकरण में नगण्य प्रगति का ठीकरा भूमंडलीकरण या उदारीकरण के अंतर्गत खुले बाजार प्रणाली पर फोडना मात्र बेमानी है । ये समस्याए तो हमारे पूर्वाग्रहों व पितृसत्ता को विरासत में मिले शोषण अधिकारों का चला आ रहा सिलसिला व कडी मात्र ही है । और हमें यह स्वीकार करने में बहुत असहज अनुभव नहीं करना चाहिए कि भूमंडलीकरण या उदारीकरण के अंतर्गत खुले बाजार प्रणाली ने निश्चित रूप से लिंगभेद की गहरी खाँई का काफी हद तक समतलीकरण तो किया ही है ।

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  3. @ देवेन्‍द्र,
    यह पुस्‍तक इसी भ्रम को दूर करती है।
    यह कहा जा सकता है कि नारी स्‍वेच्‍छा से अपने आप को वस्‍तु के रूप में परोस रही है। इसलिए इसे नारी की स्‍वतंत्रता कहा जा सकता है। लेकिन हाल की आपराधिक घटनाओं खाप पंचायतों के निर्णयों, देश और देश की राजधानी में बढ रहे बलात्‍कारों की संख्‍या को देखते ऐसे कई बहुसंख्‍य सामाजिक मुद्दे हैं जो भूमंडलीकरण द्वारा नारी मुक्ति के किए गए दावे को झुठलाती है।

    शरीर बेचने पर मजबूर होने वाली और सौंदर्यीकरण के नाम पर अपने शरीर की चीरुफाड करवाले वाली नारी भी मुक्त ही तो है।

    हालात सबसे अफसोसनाक तब हो जाते हैं जब एक गुलाम को उसकी गुलामी का एहसास नहीं रहता। सोने की हथकडियॉं पहनकर खुश होने वालों को क्‍या कहा जा सकता है।

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  4. आपके कमेन्ट से पूरी तरह सहमत। सार्थक पोस्ट।

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