Monday, January 2, 2012



व्योमकेश दरवेश


मनोज कुमार
इन दिनों एक पुस्तक पढ़ी। डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी रचित “व्योमकेश दरवेश”। लेखक इस पुस्तक को आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी का पुण्य स्मरण कहते हैं। आकाशधर्मा गुरु आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी जी अपने जीवन-काल में ही मिथक-पुरुष बन गए थे। हिंदी में ‘आकाशधर्मा’ और ‘मिथक’ इन दोनों शब्दों के प्रयोग का प्रवर्तन उन्होंने ही किया था।

vyomkesh darveshहजारीप्रसाद द्विवेदी हिंदी साहित्य के प्रख्यात रचनाकार और आलोचक हैं। हिंदी जगत में उनकी प्रतिष्ठा अन्वेषक, इतिहासकार, आलोचक, निबंधकार और उपन्यासकार के रूप में है। उनका रचित साहित्य विविध एवं विपुल है। उनका जीवन-संघर्ष विस्थापित होते रहने का संघर्ष है। इसीलिए उनकी जीवन-यात्रा के बारे में लिखना जितना ज़रूरी है उससे ज़्यादा मुश्किल। अपने विषय में लिखित सामग्री को संभालकर या सुरक्षित रखना द्विवेदी जी के स्वभाव में नहीं था, हां पत्र लिखने और पत्रों का जवाब देने में वे बड़ी तत्परता दिखाते थे। इसलिए उनके जीवन की, खासकर आरंभिक काल की, बहुत सी जानकारी लेखक ने उनके पत्रों से संकलित करके बड़े ही करीने से हमारे सामने रखा है। पुस्तक का आरंभ द्विवेदी जी के बचपन और उनके जन्म स्थान बलिया ज़िले के बसरिकापुर कस्बे के आरत दुबे का छपरा से हुआ है जहां अभी तक द्विवेदी परिवार का पुश्तैनी मकान है। लेखक बताते हैं कि थोड़ी दूर पर पंडित जी ने नया मकान बनवाना शुरु किया था। नींव रखी गई। मकान नहीं बन पाया। कुछ ऐसा हुआ कि नींव की जगह पर पाकड़ का एक पेड़ उग आया। वह पेड़ अब विशाल हो गया है।

इस पुस्तक को पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी जी की जीवनी भी कह सकते हैं, पर इसका रूप संस्मरण की तरह का है। लेखक ख़ुद कहते हैं कि यह तटस्थतापूर्वक नहीं लिखी गई है। इसका कारण यह है कि इस पुस्तक के लेखक को दो दशकों से भी अधिक समय तक उनका सान्निध्य और शिष्यत्व प्राप्त होने का सौभाग्य मिला है। इतना ही नहीं आचार्य द्विवेदी के पूरे परिवार की छाया लेखक के ऊपर रही, न सिर्फ़ पंडित जी और माता जी बल्कि उनकी संतानों की भी। इसलिए यह पुस्तक संस्मरणात्मक हो गई है। इस पुस्तक में संस्मरण, आत्मकथा, रिपोर्ताज, रेखाचित्र, डायरी और समीक्षा विधा का आस्वाद एक साथ लिया जा सकता है।

लेखक ने प्रयास किया है कि प्रसंगों और स्थितियों को यथासंभव प्रामाणिक स्रोतों से ही ग्रहण करें। 19 अगस्त 1907 को जन्मे द्विवेदी जी ने आरंभिक शिक्षा के बाद हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी से ज्योतिष और संस्कृत की उच्च शिक्षा प्राप्त की। 1929 ई में संस्कृत साहित्य में शास्त्री और 1930 में ज्योतिष विषय लेकर शास्त्राचार्य की उपाधि पाई। 8 नवम्बर, 1930 को हिंदी शिक्षक के रूप में शांतिनिकेतन में कार्यारम्भ किया। वहीं 1930 से 1950 तक हिन्दी-भवन में अध्यक्ष का कार्य करते रहे। लेखक ने इस प्रसंग का वर्णन काफ़ी सजीव ढंग से किया है। वे बताते हैं कि द्विवेदी जी के चलते शान्तिनिकेतन हिन्दी साहित्यकारों, हिंदी प्रेमियों और विद्यार्थियों के लिए प्रमुख स्थल बन गया। काव्यतीर्थ तो वह गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के चलते था ही। गुरुदेव के प्रभाव में द्विवेदी जी की भावभूमि का अभूतपूर्व विस्तार हुआ।

हालाकि पंडित जी शान्तिनिकेतन छोड़ना नहीं चाहते थे, लेकिन जब मातृ-संस्थान का निमन्त्रण मिला तो काशी चले आए। सन् 1950 में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में हिंदी प्रोफेसर के पद पर द्विवेदी जी की नियुक्ति हुई। काशी की तत्कालीन साहित्य-मंडली, लेखक की मित्र-मंडली अनायास पुस्तक में आ गई है। लेखक बताते हैं कि तब बनारस में पं. महादेव शास्त्री, सम्पूर्णानंद, बेढ़ब बनारसी, विनोद शंकर व्यास, नज़ीर बनारसी, त्रिलोचन शास्त्री, विष्णुचन्द्र शर्मा, चन्द्रबली सिंह, शम्भुनाथ सिंह, नामवर सिंह, शिव प्रसाद सिंह, केदार नाथ सिंह, शमशेर बहादुर सिंह, रामदरश मिश्र आदि थे। इन सब से जुड़े संस्मरणों की भरमार है इस पुस्तक में जिसे लेखक ने रोचक वृत्तांत में बदल दिया है।

1960 के जून में काशी विश्वविद्यालय से द्विवेदी जी की सेवा समाप्त कर दी गई। 1960-67 के दौरान, पंजाब विश्वविद्यालय चण्डीगढ़ में हिंदी प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष रहे। पंडित जी के आने से पंजाब-हरियाणा की राजधानी चण्डीगढ़ हिंदी साहित्य का नवीनतम तीर्थ बन गया। 1967 के बाद पुनः काशी हिंदू विश्वविद्यालय में, जहाँ कुछ समय तक रैक्टर के पद भी रहे। जीवन के अतिंम दिनों में ‘उत्तरप्रदेश हिंदी संस्थान’ के उपाध्यक्ष रहे। इन सब से जुड़ी हर छोटी-बड़ी बातों का लेखक ने बड़े विस्तार से इस पुस्तक में वर्णन किया है।

हालाकि इस किताब के बारे में अपने गुरु का पुण्य स्मरण करते हुए लेखक कहते हैं, “पंडित जी कहा करते थे, एक साथ तैयारी कर के, योजना बनाकर कोई काम करे तो लेखन में सघनता आती है, दुहराव-तिहराव पुनरुक्तियां नहीं होतीं और काम जल्दी पूरा भी हो जाता है।” पर लेखक ने खुद स्वीकार किया है, “मुझसे यह हो नहीं पाता, हो नहीं पाया।” इस पुस्तक में एक ही कथन को कई जगहों पर दुहराया गया है, जो इसकी रोचकता का ह्रास करता है। सघनता में भी कमी है, जिससे किताब पाठक को पकड़ कर नहीं पढ़वाती, बल्कि रुक-रुक कर पढ़ना पड़ता है। पुनरुक्ति दोष, तथ्यों की भरमार, लेखक का अपना आत्म-प्रकाश, निस्संगता का अभाव, ठस्स गद्य, तरलता का अभाव इसे रोचक बनने नहीं देता, जो पाठकों को अंत तक बांधे रखे। लेकिन बावज़ूद इसके कि हजारीप्रसाद द्विवेदी जैसे व्यक्तित्व पर लेखनी उठाना साहस का काम है और उस साहस को लेखक ने दिखलाया है, साथ ही उनके लेखन में ईमानदारी का पूरा प्रभाव देखा जा सकता है। इसलिए इसे संस्मरण या जीवनी न कह कर संस्मरणात्मक जीवनी के मिले-जुले रूप में याद किया जाएगा और शोधार्थी के लिए यह पुस्तक काफ़ी उपयोगी सिद्ध होगी। गम्भीर आलोचक माने जाने वाले विश्वनाथ त्रिपाठी ने इस पुस्तक में न सिर्फ़ अपनी विलक्षण स्मृति का परिचय दिया है बल्कि द्विवेदी जी से जुड़े आख्यान को एक सरल कथानक के रूप में पेश किया है।
***
पुस्तक का नाम : व्योमकेश दरवेश
लेखक : डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी
प्रकाशक : राजकमल प्रकाशन प्रा.लि.नई दिल्ली- 110002
मूल्य: 600 रु.
पृष्ठ : 464

7 comments:

  1. ये किताब पढ़ने का मन है अब तो।

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  2. महत्वपूर्ण पुस्तक की जानकारी देने के लिये आभार।
    नववर्ष की मंगलकामनाएं।

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  3. पुस्तक की जानकारी के लिये,धन्यवाद



    vikram7: हाय, टिप्पणी व्यथा बन गई ....

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  4. Replies
    1. बहुत-बहुत धन्यवाद रामाकांत जी।

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  5. इस पुस्तक में एक ही कथन को कई जगहों पर दुहराया गया है, जो इसकी रोचकता का ह्रास करता है। सघनता में भी कमी है, जिससे किताब पाठक को पकड़ कर नहीं पढ़वाती, बल्कि रुक-रुक कर पढ़ना पड़ता है। पुनरुक्ति दोष, तथ्यों की भरमार, लेखक का अपना आत्म-प्रकाश, निस्संगता का अभाव, ठस्स गद्य, तरलता का अभाव इसे रोचक बनने नहीं देता, जो पाठकों को अंत तक बांधे रखे।

    हजारी प्रसाद द्विवेदी मेरे प्रेरणा स्रोत रहे हैं। उनका कुछ भी लिखा हुआ मिल जाए तो मैं लालची बालक की तरह लपक लेता हूं दृपर यह कथन मुझे रोक रहा है... फिर मूल्य भी ...

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