Sunday, August 29, 2010

कुछ बातें पढने के बारे में


जब हमने यह ब्‍लॉग बनाया तो जेहन में एक छोटा सा ख्‍याल था कि समय निकालकर जो कुछ भी थोडा-बहुत पढा जाता है, उसे अपनी सामर्थ्‍य के अनुसार साझा करना एक अच्‍छा ख्‍याल साबित होगा। वही हम कर भी रहे हैं। माननीय सदस्‍यगण भी अपनी सुविधा और रुचि के अनुसार जब लिखना पसंद करेंगे लिखेंगे। क्‍योंकि हमारा जोर इस बात पर ज्‍यादा है बल्कि यह कहना चाहिए कि इस बात पर ही है कि हम क्‍या कर रहे हैं, बजाय इसके कि दूसरे लोग क्‍या नहीं कर रहे हैं :-)

पुस्‍तकें हमें जीवन को समाज को समझने में उन्‍हें गहराई से देखने में बहुत मददगार होती हैं। साहित्‍य को समाज का दर्पण कहा गया है लेकिन मेरी समझ है कि साहित्‍य समाज को देखने का सूक्ष्‍मदर्शी है, सुनने का ध्‍वनिवर्धक यंत्र है। इसे पढते हुए वह दिखाई देता है जो हमें पहले नहीं दिखा था वह आवाजें सुनाई दे जाती हैं, जो हमारे आसपास होती हुई भी हमें पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं।


हर तरह के विचारकों खासकर परस्‍पर धुर विरोधी विचारकों की रचनाऍं पढना मेरी आदत रही है। उससे मुझे चीजों को गहराई से समझने में मदद मिलती है। और साथ ही इस बात का भी पता चल जाता है कि किसमें कितनी सच्‍चाई है। इसका एक फायदा यह भी होता है कि आपकी सहानुभूति भले ही किसी एक विचारधारा के प्रति हो लेकिन आप कभी कट्टर नहीं हो सकते।
दूसरी बडी चीज होती है कि आपको बचपन में किन विचारधाराओं के तहत पोषित किया गया था अर्थात् किस तरह के संस्‍कार दिए गए थे और अब आप क्‍या सोचते हैं।

अपने बने बनाए विश्‍वासों के उलट बातें पढना धैर्य का काम है। दूसरी ओर अपनी मान्‍याताओं को उखडते हुए देखना साहस है। ऐसा तब होता है जब हम अपने आपको खोलकर रखते हैं। अपने अस्तित्‍व को किसी खास वाद में बांधकर नहीं रखते। मैं नहीं कहता कि किसी खास विचारधारा को मानना गलत है। लेकिन उससे नुकसान यह होता है कि एक इमेज में कैद होने के बाद आप जो भी करते हैं उस छवि को मजबूत करने के‍ लिए करते हैं। वही आपका अस्तित्‍व बन जाता है। फिर उसमें दोष दिखने पर भी आप उसके उलट नहीं बोल सकते। अव्‍वल तो उसमें दोष देखने का साहस ही जाता रहता है। क्‍योंकि वह हमारे अहंकार का हिस्‍सा बन चुका होता है।
आज मैंने पढने के बारे में अपने कुछ विचार व्‍यक्‍त किए। और ऐसा करते करते मैं इस नतीजे पर पहुँच रहा हूँ कि हमारी विचारशीलता इस बात पर निर्भर करती है कि पढने से हमारी स्‍थापित मान्‍यताऍं निरंतर दृढ हो रही हैं (या इसीलिए हम पढ रहे हैं) या हम नवीन तथ्‍यों और युक्तियों की रोशनी में उसमें परिमार्जन कर रहे हैं या करने की मंशा रखते हैं।

यद्यप‍ि ऐसा करने की तैयारी होना पर्याप्‍त साहस का काम है।
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आज भी मैंने एक पुस्‍तक पर लिखने के लिए ही पोस्‍ट लिखनी शुरु की थी। लेकिन भूमिका ने पूरी पोस्‍ट पर अतिक्रमण कर लिया। इसलिए यह किताब अब अगली बार आपके सामने खोली जाएगी। जल्‍द ही।

धन्‍यवाद।

7 comments:

  1. विविधता से परिपूर्ण अध्ययन हमारे आलोचनात्मक विवेक को विकसित करता है। हमारी तार्किकता को सटीक करता है।

    यही सटीक तार्किकता और आलोचनात्मक विवेक हमें सही चुनाव, पक्षधरता और प्रतिबद्धता के ताने-बाने से संपन्न करता है।

    इसके बगैर हुई मानने या बंधने की प्रक्रिया हमें सीमित करती है, आक्रामक करती है।

    अच्छी बात। शुक्रिया।

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  2. आपने बिल्कुल सही कहा, "पढते हुए वह दिखाई देता है जो हमें पहले नहीं दिखा था वह आवाजें सुनाई दे जाती हैं, जो हमारे आसपास होती हुई भी हमें पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं।" पढ़ना सचमुच अपनी चेतना का अन्वेषण है.

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  3. पुस्तकों से मेरा बचपन से ही गहरा नाता है। हर पुस्तक का अपना अलग व्यक्तित्व है और वह लेखक के वैचारिक व्यक्तित्व का प्रतिबिम्ब है। हर पुस्तक मुझे लगता है कि मेरे लिये ही लिखी गयी है।

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  4. पढ़कर सोचने लगा कि पुस्तकें अगर न होतीं हमारी जिंदगी में तो सचमुच....सचमुच हमारा क्या बनता फिर।

    मुझे आपने कौन-सी तारीख दी थी, सर?

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  5. पुस्तक पढ़ते समय यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि उसे निरपेक्ष भाव से पढ़ा जाए।

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  6. kya baat hia...bahut acha lagi yeh jaankaari :)

    http://liberalflorence.blogspot.com/

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  7. आज ही मुझे आप के ब्लॉग की जानकारी हुई । आप की भूमिका पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई । पूरा ब्लॉग पढ़कर यथास्थान अपनी बात कहने की कोशिश करूंगा ।

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