अन्धेर नगरी
पुस्तकें पढना मेरी हॉबी है। इसलिए जब ‘पुस्तकायन’ ब्लॉग पर नज़र पड़ी तो झट से इसका सदस्य बन गया। कई बार ऐसा होता है कि आप जब कोई पुस्तक पढते हैं तो उसकी कई बातें लोगों से बांटने का मन करता है। आज (२६ सितंबर, २०१०) कोलकाता से दिल्ली की यात्रा के वक़्त पढ़ने के लिए साथ में एक ऐसी पुस्तक थी जिसकी कई बातें बांटने का मन अनायास बन गया। यह पुस्तक थी “अन्धेर नगरी” एक लोककथा तो आपने सुनी ही होगी। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’। प्रस्तुत पुस्तक इसी लोककथा पर आधारित है।
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र इस पुस्तक के रचयिता हैं। उनका यह नाटक कालजयी रचना है। जब इसकी रचना हुई थी तबसे आज तक परिस्थितियां तो काफ़ी बदली हैं, पर समय के बदलने के साथ इसका अर्थ नये रूप में हमारे सामने आता है। अंधेर नगरी तो हर काल में मौज़ूद रहा है। हर स्थान पर। १८८१ में रचित इस नाटक में भारतेन्दु ने व्यंग्यात्मक शैली अपनाया है। इस प्रहसन में देश की बदलती परिस्थिति, चरित्र, मूल्यहीनता और व्यवस्था के खोखलेपन को बड़े रोचक ढ़ंग से उभारा गया है।
पहले दृश्य का अंत इस संदेश के साथ होता है,
लोभ पाप को मूल है, लोभ मिटावत मान।
लोभ कभी नहिं कीजिए, या मैं नरक निदान॥
इस नाटक में बाज़ार का दृश्य है। यह बाज़ार क्या पूरा विश्व को रचनाकार ने अपने चुटीले लेखन से हमारे सामने साकार कर दिया है। यहां हर चीज़ टके सेर बिक रही है। और बेचने वाला कह रहा है
चूरन पुलिस वाले खाते। सब कानून हजम कर जाते॥
एक और दृश्य है जहां राज भवन की स्थिति को दर्शाया गया है। यहां पर मदिरापान, चमचागिरी, दरबारियों के मूर्खता भरे प्रश्न और राजा का अटपटा व्यवहार इस दृष्य की विशेषता है। अंतिम दृश्य में फांसी पर चढने की होड़ को बखूबी दर्शाया गया है। इस दृश्य का अंत एक संदेश के साथ होता है,
जहां न धर्म न बुद्धि नहिं नीति न सुजन समाज। ते ऐसहिं आपुहिं नसैं, जैसे चौपट राज॥
तीखा व्यंग्य इस नाटक की विशेषता है। सता की विवेकहीनता पर कटाक्ष किया गया है। भ्रष्टाचार, सत्ता की जड़ता, उसकी निरंकुशता, अन्याय पर आधारित मूल्यहीन व्यवस्था को बहुत ही कुशलता से उभारा गया है। साथ ही यह संदेश भी दिया गया है कि अविवेकी सत्ताधारी की परिणति अच्छी नहीं होती।
बाज़ार के दृश्य के द्वारा अमानवीयता, संवेदनहीनता को बहुत ही रोचकता से प्रस्तुत किया गया है। सब्ज़ी बेचने वाली जब यह कहती है कि “ले हिन्दुस्तान का मेवा – फूट और बेर”, तो तो इसका व्यंग्यात्मक अर्थ समाज में व्याप्त आपसी फूट और वैर भाव को व्यपकता के साथ प्रस्तुत करता है। चूरन बेचने वाले के शब्द देखिए,
चूरन साहब लोग जो खाता। सारा हिन्द हजम कर जाता।।
शायद उन दिनों के ब्रिटिश शासक के लिए लिखा गया हो। पर क्या आज के संदर्भ में यह सही नहीं है? इस नाटक के काव्य इसके व्यंग्य को तीखापन प्रदान करते हैं। नटक में गति है, हास्य भरे वक्तव्य हैं, और साथ ही शिक्षा भी।
पुस्तक का नाम - अन्धेर नगरी लेखक - भारतेन्दु हरिश्चन्द्र
राजकमल पेपर बैक्स में
पहला संस्करण : 1986
आवृति : 2009
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली-110 002
द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 25 रु.
बहुत बढिया समीक्षा. आभार.
ReplyDeleteबहुत अच्छी समीक्षा ...अच्छी व्यंग कथा होगी ऐसा लगता है ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक जानकारी दी है आपने ........ आभार
ReplyDeleteपढ़िए और मुस्कुराइए :-
आप ही बताये कैसे पर की जाये नदी ?
यह नाटक तो आज भी उतना ही प्रासंगिक लगता है।
ReplyDeleteआज भी हमें कमोबेश वही सब कुछ देखने को मिलता है।
भ्रष्टाचार सिस्टम की आत्मा में घुसा हुआ है। व्यवस्था में जवाबदेही का अभाव है। बडे चोरों को सजा नहीं मिलती । चींटियों को मारने के लिए तोपों की व्यवस्था हो जाती है और पागल कुत्तों को मारने के लिए सिस्टम को डंडा भी नहीं मिलता।
अधाधुंध के राज में गदहे पंजीरी खा रहे हैं। और क्या चाहिए अंधेर नगरी के लिए।
पुस्तकायन पर पहली पोस्ट लिखने की बधाई।
सच में यह एक कालजयी रचना है, हर काल में उपयुक्त।
ReplyDeleteयह पुस्तक आज भी उतनी जीवित है जितनी उस समय लेखक के हृदय में थी।
ReplyDeleteशायद ही कोई नाट्य संस्था होगी जिसने इस कालजयी पुस्तक पर नाटक न खेला हो..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी रचना ..........आभार आपका .
ReplyDeleteये तो मैने भी पढ़ी है...बहुत मजेदार है। सिलेबस में थी...आपने याद दिलाया तो मुझे याद आया....समीक्षा अच्छी की है...वाकई
ReplyDeleteज्ञानवर्धन के लिए आभार .
ReplyDeleteबहुत सुन्दर और ज्ञानवर्धक जानकारी
ReplyDelete...समीक्षा अच्छी है