दोस्तों, अभी पिछले दिनों वामपंथ (विचलन) पर "हँस" के फ़रवरी, १९८९ अंक में प्रकाशित और "पाखी" के अगस्त २०१० अंक में पुनर्प्रकाशित सृंजय की बहुचर्चित कहानी - "कामरेड का कोट" पढ़ी. इस बार इसी पर बात करता हूँ...
"कामरेड का कोट" आज़ाद भारत में वामपंथी धारा की बौद्धिकता और जमीनी सच्चाइयों के बरक्स उसके नाकाम होने के कारणों की पड़ताल का खरा विश्लेषण प्रतुत करती है. मुख्य पात्र कमलाकांत को हमारे समाज में व्यवस्था विद्रोह की जरूरत और अनिवार्यता का मशाल उठाने वाले के रूप में पेश किया गया है. जब हालत मौखिक प्रतिरोध से आगे, "ग्राउंड जीरो" पर सक्रियता का, अपने अस्तित्व और 'सर्वाइवल"(सुरक्षा) का हो जाता है, तब मात्र बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चल सकता. क्रांति कोई रोमांटिसिज्म नहीं है और ना सिर्फ़ खा-पीकर अघाये मुखों से प्रवचन देने को जुटे शब्दवीरों की जुगाली का मंच और अकर्मण्य चापलूसों की भीड़ जुटाने का प्रयोजन. दुखद है कि, यह प्रवृति ना सिर्फ़ वामपंथ में बल्कि इधर प्राय: सभी धाराओं में पनप गयी है.
हम रेणु के "मैला आँचल" में बामनदास का मोहभंग देख चुके हैं. सृंजय जी, बड़ी बारीकी से इन कारकों को बुनते हुए वस्तुस्थिति को ठेठ स्थानीय बोली-बानी और मिजाज में बयान करते हैं. कामरेड को रूस से मिला हुआ "कोट" एक प्रतीक है. केवल बौद्धिक धरातल पर श्रेष्ठता का गुमान करने वाली प्रवृति की, और कहानी के अंत में जब कमलाकांत रुसी लाल कोट को ले जाने वाले होते हैं तो पार्टी के प्रतिनिधि बड़े नेता रक्तध्वज खुद सामंत की भूमिका में खड़े होने लगते हैं, जबकि, उनके हिसाब से "क्रांति के लिए जरूरी है, पहले खुद को डीक्लास करना" लेकिन क्या वाकई वे 'डी-क्लास' हो पाए हैं? यही प्रश्न मथता है... क्लाइमेक्स का संवाद व्यावहारिकता और आदर्श बुद्धिजीविता के खोखलेपन को तीक्ष्णता से उजागर करता है... "कमलाकांत ने अट्टहास किया, "ठंड से बचने का एक हथियार है कोट,... आपने कहा था न कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा." कोट को वापस लेते हुए कॉमरेड रक्तध्वज के चेहरे की जुगुप्सा और तमतमाहट उनको भी उसी बुजुर्वा वर्ग के कोटे में ला खड़ा करती है, जो उनका घोषित वर्ग शत्रु है. ये कायांतरण दरअसल इस देश की सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को नजरअंदाज कर मार्क्सवाद को यथावत चस्पां किये जाने की कोशिश का हताशापूर्ण परिणिति का एक पहलू है. कमलाकांत कहता है, "मार्क्सवाद ने मुझे यही सिखाया है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए..." जाहिर है, ऐसा नहीं हुआ है. इस देश में वाम विचारधारा को रूढ़ी की तरह थोपा गया, जिसके कुछ अधिक सकारात्मक परिणाम नहीं हासिल हुए, और अंतत: यह धारा स्थिति आपसी मतभेदों, कलह और वैचारिक-चारित्रिक पतन की ओर बढ़ी. वामपंथ का गढ़, बंगाल भी इस बार धराशायी हो गया...
कमलाकांत के व्यावहारिक तर्क पार्टी के पहरुओं को तिक्त और बौखला देती है. "पत्थर से कांच चकनाचूर किया जा सकता है, लेकिन उससे मनमाना आकार नहीं पाया जा सकता." क्योंकि इन तर्कों का का जवाब उनके पास नहीं है... किताबी ज्ञान के सहारे खोखल में सिकुड़े भीरु बौधिक वर्ग जमीन से कितना जुड़ा होता है! ना इस असलियत को स्वीकार ही कर पाता है. कमलाकांत बुद्धिजीवी वर्ग पर तीखी उलाहना जायज़ लगती है, " सच कहूँ तो आप लोगों का व्यवस्था-विरोध उस वेश्या के गुस्से की तरह है, कामरेड, जब तक उसे पूरे नजराने नहीं मिल जाते. फिर तो वह अपने को ऐसा परोसती है...ऐसा परोसती है...कि अब क्या कहूँ?" इस तथाकथित बुद्धिजीवियों और निर्णय-नीति निर्धारकों की खोखली आशावादिता और पनप रही मौकापरस्त मानसिकता भी पंचतंत्र की एक दृष्टान्त कथा द्वारा बेनकाब करते हैं, जाहिर है, इस पर सब तिलमिला उठते हैं. जबकि, कमलाकांत अपने लक्ष्य पर स्पष्ट हैं कि, 'जनता को जन-संघर्षों के माध्यम से एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए तैयार करना चाहिए.' इसलिए वह फैसला करते हैं कि, "मार्क्सवादी कर्मकांडियों की संघर्ष और क्रांति की किताबी व्याख्याओं के मकड़जाल से उन्हें बाहर निकलना होगा ही होगा."
इस देश में आज भी ऐसा वर्ग है जो, क्रांति को केवल के रूमानी सपने की तरह युवाओं की आखों में भरता है, महज अपने स्वार्थ के लिए, जबकि जमीन पर आकर एक्टीविष्ट की भूमिका निभाने से कतराता है. सिर्फ़ किताबी समझ से और दकियानूसीपन से वैकल्पिक व्यवस्था नहीं तैयार हो सकती है, "कॉमरेड का कोट" इसी तथ्य को उजागर करता है. लेखक नायक के जरिये एक कटु सच भी सामने रखता है, निष्कर्ष की तरह - "सतमासे बच्चे की तरह अविकसित भारतीय जनतंत्र में हमें जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मिली हुई है, उसका वर्गहित में इस्तेमाल करना मैं भी पसंद करता हूँ. लेकिन व्यूह के भीतर घुसपैठ के साथ-साथ बाहर से भी आक्रमण करना पड़ेगा." संसदीय व्यवस्था पर कमजोर आस्था के वाबजूद कमलाकांत चाहते हैं कि, "बाहरी और भीतरी आक्रमण के बीच एक तालमेल होना चाहिए. अगर सिर्फ़ चुनाव तक ही अपने को समेट लें तो जनतंत्र में चुनने और मत व्यक्त करने के लिए जिस सामाजिक विवेक की जरूरत पड़ती है, उसे हम खो देंगे."
"कामरेड का कोट" वामपंथ को खोखला बनाने वाली कारणों का यथार्थवादी प्रहसन है. शिल्प और भाषा का अनूठापन भी है, कहने की जरूरत नहीं. एक बड़ी कहानी के सभी तत्व यहाँ हैं.
"कामरेड का कोट" आज़ाद भारत में वामपंथी धारा की बौद्धिकता और जमीनी सच्चाइयों के बरक्स उसके नाकाम होने के कारणों की पड़ताल का खरा विश्लेषण प्रतुत करती है. मुख्य पात्र कमलाकांत को हमारे समाज में व्यवस्था विद्रोह की जरूरत और अनिवार्यता का मशाल उठाने वाले के रूप में पेश किया गया है. जब हालत मौखिक प्रतिरोध से आगे, "ग्राउंड जीरो" पर सक्रियता का, अपने अस्तित्व और 'सर्वाइवल"(सुरक्षा) का हो जाता है, तब मात्र बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चल सकता. क्रांति कोई रोमांटिसिज्म नहीं है और ना सिर्फ़ खा-पीकर अघाये मुखों से प्रवचन देने को जुटे शब्दवीरों की जुगाली का मंच और अकर्मण्य चापलूसों की भीड़ जुटाने का प्रयोजन. दुखद है कि, यह प्रवृति ना सिर्फ़ वामपंथ में बल्कि इधर प्राय: सभी धाराओं में पनप गयी है.
हम रेणु के "मैला आँचल" में बामनदास का मोहभंग देख चुके हैं. सृंजय जी, बड़ी बारीकी से इन कारकों को बुनते हुए वस्तुस्थिति को ठेठ स्थानीय बोली-बानी और मिजाज में बयान करते हैं. कामरेड को रूस से मिला हुआ "कोट" एक प्रतीक है. केवल बौद्धिक धरातल पर श्रेष्ठता का गुमान करने वाली प्रवृति की, और कहानी के अंत में जब कमलाकांत रुसी लाल कोट को ले जाने वाले होते हैं तो पार्टी के प्रतिनिधि बड़े नेता रक्तध्वज खुद सामंत की भूमिका में खड़े होने लगते हैं, जबकि, उनके हिसाब से "क्रांति के लिए जरूरी है, पहले खुद को डीक्लास करना" लेकिन क्या वाकई वे 'डी-क्लास' हो पाए हैं? यही प्रश्न मथता है... क्लाइमेक्स का संवाद व्यावहारिकता और आदर्श बुद्धिजीविता के खोखलेपन को तीक्ष्णता से उजागर करता है... "कमलाकांत ने अट्टहास किया, "ठंड से बचने का एक हथियार है कोट,... आपने कहा था न कॉमरेड! यदि सचमुच जरूरत हुई तो अपने आप हमारे पास हथियार आ जायेगा." कोट को वापस लेते हुए कॉमरेड रक्तध्वज के चेहरे की जुगुप्सा और तमतमाहट उनको भी उसी बुजुर्वा वर्ग के कोटे में ला खड़ा करती है, जो उनका घोषित वर्ग शत्रु है. ये कायांतरण दरअसल इस देश की सामाजिक, राजनीतिक परिप्रेक्ष्य को नजरअंदाज कर मार्क्सवाद को यथावत चस्पां किये जाने की कोशिश का हताशापूर्ण परिणिति का एक पहलू है. कमलाकांत कहता है, "मार्क्सवाद ने मुझे यही सिखाया है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए..." जाहिर है, ऐसा नहीं हुआ है. इस देश में वाम विचारधारा को रूढ़ी की तरह थोपा गया, जिसके कुछ अधिक सकारात्मक परिणाम नहीं हासिल हुए, और अंतत: यह धारा स्थिति आपसी मतभेदों, कलह और वैचारिक-चारित्रिक पतन की ओर बढ़ी. वामपंथ का गढ़, बंगाल भी इस बार धराशायी हो गया...
कमलाकांत के व्यावहारिक तर्क पार्टी के पहरुओं को तिक्त और बौखला देती है. "पत्थर से कांच चकनाचूर किया जा सकता है, लेकिन उससे मनमाना आकार नहीं पाया जा सकता." क्योंकि इन तर्कों का का जवाब उनके पास नहीं है... किताबी ज्ञान के सहारे खोखल में सिकुड़े भीरु बौधिक वर्ग जमीन से कितना जुड़ा होता है! ना इस असलियत को स्वीकार ही कर पाता है. कमलाकांत बुद्धिजीवी वर्ग पर तीखी उलाहना जायज़ लगती है, " सच कहूँ तो आप लोगों का व्यवस्था-विरोध उस वेश्या के गुस्से की तरह है, कामरेड, जब तक उसे पूरे नजराने नहीं मिल जाते. फिर तो वह अपने को ऐसा परोसती है...ऐसा परोसती है...कि अब क्या कहूँ?" इस तथाकथित बुद्धिजीवियों और निर्णय-नीति निर्धारकों की खोखली आशावादिता और पनप रही मौकापरस्त मानसिकता भी पंचतंत्र की एक दृष्टान्त कथा द्वारा बेनकाब करते हैं, जाहिर है, इस पर सब तिलमिला उठते हैं. जबकि, कमलाकांत अपने लक्ष्य पर स्पष्ट हैं कि, 'जनता को जन-संघर्षों के माध्यम से एक वैकल्पिक व्यवस्था के लिए तैयार करना चाहिए.' इसलिए वह फैसला करते हैं कि, "मार्क्सवादी कर्मकांडियों की संघर्ष और क्रांति की किताबी व्याख्याओं के मकड़जाल से उन्हें बाहर निकलना होगा ही होगा."
इस देश में आज भी ऐसा वर्ग है जो, क्रांति को केवल के रूमानी सपने की तरह युवाओं की आखों में भरता है, महज अपने स्वार्थ के लिए, जबकि जमीन पर आकर एक्टीविष्ट की भूमिका निभाने से कतराता है. सिर्फ़ किताबी समझ से और दकियानूसीपन से वैकल्पिक व्यवस्था नहीं तैयार हो सकती है, "कॉमरेड का कोट" इसी तथ्य को उजागर करता है. लेखक नायक के जरिये एक कटु सच भी सामने रखता है, निष्कर्ष की तरह - "सतमासे बच्चे की तरह अविकसित भारतीय जनतंत्र में हमें जो थोड़ी-बहुत स्वतंत्रता मिली हुई है, उसका वर्गहित में इस्तेमाल करना मैं भी पसंद करता हूँ. लेकिन व्यूह के भीतर घुसपैठ के साथ-साथ बाहर से भी आक्रमण करना पड़ेगा." संसदीय व्यवस्था पर कमजोर आस्था के वाबजूद कमलाकांत चाहते हैं कि, "बाहरी और भीतरी आक्रमण के बीच एक तालमेल होना चाहिए. अगर सिर्फ़ चुनाव तक ही अपने को समेट लें तो जनतंत्र में चुनने और मत व्यक्त करने के लिए जिस सामाजिक विवेक की जरूरत पड़ती है, उसे हम खो देंगे."
"कामरेड का कोट" वामपंथ को खोखला बनाने वाली कारणों का यथार्थवादी प्रहसन है. शिल्प और भाषा का अनूठापन भी है, कहने की जरूरत नहीं. एक बड़ी कहानी के सभी तत्व यहाँ हैं.
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ReplyDeleteविचार योग्य समीक्षा..
सच है कि, इस आग में कूदने की पहली शर्त अपने को ’ डी-क्लास’ करने की है, वर्गमुक्त करने की है... पर शुरुआती दौर में अपने साथ यदि ऎसा प्रयोग सँभव कर भी लिया जाय.. किन्तु आगे के सफ़र में जब हम पार्टी कैडर के मापदँडों को निभाने की बाध्यता में जकड़ जाते हैं.. तो एक दिशाभ्रम की स्थिति पनपने लगती है । परिणामतः यह क्राँतिकारी सोच अलग अलग घटकों का निर्माण और टकराव में विलीन हो जाती है ।
दूसरे यह कि.. सँगठन के बाहर का सामाजिक परिवेश इस सोच को परँपरागत सामँती चरित्र एवँ जातिगत आग्रहों के चलते आपको भले पहचान ले, पर इस कोट से बिदकने लगता है... ।
बहुत बढिया समीक्षा. ढूंढती हूं, यदि ’पाखी’ मिल जाये तो... ब्लॉग का कलेवर बहुत सुन्दर और विषयानुकूल है. बहुत अच्छा लगा यहां आना.
ReplyDelete@वंदना जी, "पाखी" नेट पर भी है - http://www.pakhi.in/
ReplyDeleteधन्यवाद साथियों...
वामपंथ पूरी तरह सफल नहीं रहा । पूरी तरह असफल भी नहीं रहा । यह तो सभी मानते हैं कि इसने एक पूरे युग को प्रभावित किया है । इसके समर्थकों और विरोधियों दोनों को।
ReplyDeleteवामपंथियों को आत्मावलोकन के लिए प्रेरित करने वाली कहानी ।
यह कई दिशाओं में एक साथ इशारा करती है ।
मुझे लगता है कि वैचारिक रूप से भारत के वामपंथी अपना खुद का देशी कुछ पैदा नहीं कर पाए । हमेशा दूसरों का मुँह ताकते रहे उनकी नकल करते रहे ।
यह बात सबकी देखी सुनी है कि भारत के वामपंथी खुद को सामंती चेतना से मुक्त नहीं कर पाए । वामपंथ की सबसे बडी कमजोरी रही कि वह किसानों को नहीं समेट पाया । इसीलिए यह कभी जनांदोलन नहीं बन सका ।
कहानी इन सभी बिंदुओं को समेटती है।
"कमलाकांत कहता है, "मार्क्सवाद ने मुझे यही सिखाया है कि अपनी-अपनी परिस्थितियों के अनुसार उसका क्रियान्वयन किया जाना चाहिए..." जाहिर है, ऐसा नहीं हुआ है. इस देश में वाम विचारधारा को रूढ़ी की तरह थोपा गया, जिसके कुछ अधिक सकारात्मक परिणाम नहीं हासिल हुए, और अंतत: यह धारा स्थिति आपसी मतभेदों, कलह और वैचारिक-चारित्रिक पतन की ओर बढ़ी."
आपने कहानी का परिचय और सारगर्भित समालोचना सफलतापूर्वक प्रस्तुत की है । बधाई ।
इस जानकारी के लिए हृर्दिक आभार।
ReplyDeleteसद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
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अतिसुन्दर प्रयास। जितनी भी तारीफ़ की जाये कम है। बहुत-बहुत बधाई और शुभकामनायें।
ReplyDeleteसिर्फ किताबो से क्रांति नहीं आती ..... क्रांति के लिए किसी को आगे आ कर सुरुआत करनी पड़ती ..... जैसे भगत सिंह ने की, नेताजी ने की , और उन सभी लोगो ने जिनकी वजह से ये देश आजाद है .......... अच्छा लेख है
ReplyDeleteइस जानकारी के लिए हृर्दिक आभार।
ReplyDeleteumda jankari ke liye aabhar
ReplyDeletekuch to alag baat hai apki kalam mein
ReplyDeletegood writting
thank's
रक्षा बंधन पर हार्दिक शुभकामनाएँ!!!!!
ReplyDeleteप्रशंसनीय ।
ReplyDeleteअच्छा,प्रशंसनीय लेख, शुभकामनायें।
ReplyDeletebahut achhi jankari mili aabhar aapka ...
ReplyDeleteएक सशक्त समीक्षा |बधाई |
ReplyDeleteआशा
'पाखी’ की मेरी प्रति अभी कल ही पहुंची। कहानी पढ़ने के बाद इस चर्चा पर आया....
ReplyDeleteसारगर्भित समीक्षा।