आवाज़--
बहुत उदास होता हूँ
साँझ को
घर लौटते
परिंदों को देख कर
अपना घर याद आता है
खुली चोंचें याद आती है
जिनके लिए
मै चुग्गा चुगने का
वादा कर
एक दिन चला आया था -----------
जीवन जिया मैनें ----
उन लोगों की तरफ देख कर
नही जिया जीवन मैंने
जिन्होंने मेरे रास्तों मै
कांच बिखेर दिया
और मेरे लहू को
सुलगते खंजरों की
तासीर बताई
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सचमुच उन लोगों को देख कर
जियाजीवन मैंने
जिन्होंने इस जीवन का
अन्दर बाहर प्यार से भर डाला
गहन उदासी मै भी
जिनके प्यार ने
मनुष्य को जीने के काबिल कर डाला
उन लोगों को देख कर
जिया जीवन मैंने |
शब्दों का इन्तजार-------
शब्द जब मेरे पास नही होते
मै भी नही बुलाता उन्हें
दूर जाने देता हूँ
अदृश्य सीमाओं तक
उन्हें परिंदे बन कर
धीरे धीरे
अनंत आकाश मै
लुप्त होते देखता हूँ
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आयेंगे
मेरे कवि मन के आंगन मै
मरुस्थल बनी
मेरे मन की धरा पर
बरसेंगे रिमझिम
भर देंगे
सोंधी महक से मन
कही भी हों
शब्द चाहे
दूर
बहुत दूर
लेकिन फिर भी
शब्दों के इन्तजार में
भरा भरा रहता
अंत का खाली मन |
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Monday, December 20, 2010
Monday, November 29, 2010
अंतहीन दौड़ - जहाँ तक मैंने समझा
अंतहीन दौड़
पंजाब के सुविख्यात कवि डा . अमरजीत कोंके वो साहित्य प्रेमी है जिन्हों ने बहुत ही थोड़े समय में अपने अथक प्रयास और सशक्त लेखनी से पंजाबी साहित्य के साथ साथ हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | भावनाएं किसी भाषा किसी सरहद की मोहताज नही होती है | अमरजीत जी की रचना धर्मिता इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है |
२७ अगस्त १९६४ में जन्मे डा . अमरजीत कोंके ने पंजाबी साहित्य में स्नातकोतर की शिक्षा के उपरांत पी . एच . ड़ी प्राप्त की और वर्तमान में लेक्चरार के पद पर नियुक्त हैं |
इन्होने पंजाबी में ' दायरियाँ दी कब्र चों ','निर्वाण दी तलाश विच ',' द्वंद कथा' , 'यकीन' ,'शब्द रहेनगे कोल' , 'स्मृतियाँ दी लालटेन 'आदि काव्य पुस्तकें लिखीं वही दूसरी तरफ हिंदी में 'मुट्ठी भर रौशनी', 'अँधेरे में आवाज' और 'अंतहीन दौड़' नामक काव्य संग्रह की रचना की . | डा . कोंके ने हिंदी के कई कवियों की रचनाओ का पंजाबी में तथा कई पंजाबी रचनाओ का हिंदी में अनुवाद कर के श्रेष्ठ अनुवादको की श्रेणी में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज की है|
Sunday, November 28, 2010
आवारा भीड के खतरे
"यह पुस्तक परसाई जी के निधन के बाद उनके असंकलित और कुछेक अप्रकाशित व्यंग्य-निबंधों का संकलन है। हरशंकर परसाई देश के जागरुक प्रहरी रहे हैं, ऐसे प्रहरी जो खाने और सोनेवाले तृप्त आदमियों की जमात में हमेशा जागते और रोते रहे। उनकी रचनाओं में जो व्यंग है उसका उत्प्रेरक तत्व यही रोना है। शायद ही हिन्दी साहित्य की किसी अन्य हस्ती ने साहित्य और समाज में जड जमाने की कोशिश करती मरणोन्मुखता पर इतनी सतत, इतनी करारी चोट की हो। इसी वजह से इस लेखक की मृत्यु एक महत्वहीन सी घटना बन गई लगती है। मंथन की प्रक्रिया में परसाई उन लोगों पर गहरी निगाह रखते हैं जो उन सिद्धांतों के प्रवक्ता हैं। उनके यहॉं अंतर्विरोधों की पडताल निर्मम होती है। अपने समय की ज्वलंत समस्याओं के प्रति शासन, स्वयंसेवी संस्थाओं, राजनीतिक दलों का जो नकली रवैया रहा आया है, उसकी फोटोग्राफी स्वतंत्र भारत में इतनी संजीदगी के साथ और कहॉं ?"
- पुस्तक की भूमिका "संग्रह के बारे में" से
Saturday, November 6, 2010
अजीजन मस्तानी
आशा श्रीवास्तव जी द्वारा रचित '' अजीजन मस्तानी ''एक ऐसा उपन्यास है जिसकी पकड़ में जबर्दस्त शिद्द्त है | उपन्यास पढना शुरू करने के बाद ऐसा महसूस हो रहा था मानो सब कुछ आँखों के सामने घटित हो रहा हो | जब घटनाएँ सच्ची हों ,पात्र सच्चे हों तब काल्पनिक कुछ विशेष रह ही नही जाता है | यहाँ आकर सारा दारोमदार शिल्प पर आ टिकता है | कसा कथानक ,परिस्थिति के अनुरूप चुने हुए शब्द , गठा शिल्प , दिल और दिमाग पर हावी होने वाले घटनाक्रम और उसकी झकझोर देने वाली प्रस्तुति , आशा जी की लेखनी से निःसंदेह एक कालजयी उपन्यास का सृजन हुआ है |
ये उपन्यास एक विस्तृत फलक पर रचा गया है | देश भक्ति के लिए अपने प्राणों की परवाह ना करने वाली एक तवायफ अजीजन का चरित्र वास्तव में काबिले तारीफ है | एक औरत होने के नाते अजीजन के चरित्र ने मुझे बेहद प्रभावित किया है | उसके दिल से जो आवाज निकलती है तो ऐसा लगता है मानो ------------
एक लोटा पानी और उसमे
समन्दर की चाहत
ये कैसा दिल है ,
जिन्दगी के चंद लम्हे
मुट्ठी में आसमाँ
ये कैसी चाहत है ,
छोटा सा गुलदस्ता
ढेर सारे सपने
ये क्या हम है ?
ये उपन्यास एक विस्तृत फलक पर रचा गया है | देश भक्ति के लिए अपने प्राणों की परवाह ना करने वाली एक तवायफ अजीजन का चरित्र वास्तव में काबिले तारीफ है | एक औरत होने के नाते अजीजन के चरित्र ने मुझे बेहद प्रभावित किया है | उसके दिल से जो आवाज निकलती है तो ऐसा लगता है मानो ------------
एक लोटा पानी और उसमे
समन्दर की चाहत
ये कैसा दिल है ,
जिन्दगी के चंद लम्हे
मुट्ठी में आसमाँ
ये कैसी चाहत है ,
छोटा सा गुलदस्ता
ढेर सारे सपने
ये क्या हम है ?
Friday, November 5, 2010
........... दीपोत्सव की की बहुत बहुत शुभकामनाये !
पुस्तकायन .............ब्लॉग की
की तरफ से सभी मित्रो और पाठको को दीपोत्सव की की बहुत बहुत शुभकामनाये !
.............संजय कुमार भास्कर
Saturday, October 30, 2010
बचपन में 'जहां' और भी हैं ....: राजेश उत्साही
जॉन होल्ट की अंग्रेजी पुस्तक ‘Escape from Childhood’ के हिन्दी अनुवाद ‘बचपन से पलायन’ पर राजेश उत्साही द्वारा एक चर्चा
(इस किताब की पीडीएफ फाइल यहां उपलब्ध है)
**
न्यू यार्क में जन्में जॉन होल्ट द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिकी नौसेना में रहे। बाद में वे विश्व सरकार आंदोलन से जुड़े और अन्तत: संयुक्त विश्व संघवादियों की न्यू यार्क राज्य शाखा के कार्यकारी निदेशक बने। उन्होंने कॉलेरडो और मैसाच्युसेट्स के विभिन्न स्कूलों में पढ़ाया। वे हार्वर्ड ग्रेज्युएट स्कूल आफ एज्यूकेशन और कैलिफोर्निया यूनिवर्स्टी बर्कलें में विजिटिंग लेक्चरर भी रहे। वे होम स्कूलिंग मूवमेंट के अग्रणी प्रवक्ता थे और तमाम वैधानिक संस्थानों के समक्ष इस बाबत ठोस साक्ष्य भी प्रस्तुत करते रहे। अपने बच्चों को घर पर ही शिक्षा दे रहे अभिभावकों के लिए ग्रोइंग विदाउट स्कूलिंग नामक एक पत्रिका निकालते थे। उन्होंने शिक्षा संबंधी कई पुस्तकें लिखीं। **
घटना पैंतीस साल पुरानी है। पिताजी रेल्वे में थे। हम रेल्वे क्वार्टर में रहते थे। क्वार्टर रेल के डिब्बे की तरह ही बना था। गिने-चुने तीन कमरे थे। परिवार में माँ-पिताजी,दादी और हम सात भाई-बहन थे। पहला कमरा दिन में बैठक के रूप में इस्तेमाल होता था। उसी में एक टेबिल थी, जिस पर मैं पढ़ा करता था। बाकी भाई-बहन यहां-वहां बैठकर पढ़ लेते थे। यही कमरा रात को सोने के लिए इस्तेमाल होता था। चूंकि मैं घर में सबसे बड़ा था, इसलिए बैठक को सजाने और उसकी देख-रेख की जिम्मेदारी या दूसरे शब्दों में उस पर मेरा ही अधिकार था।
Wednesday, October 20, 2010
हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति “मैला आंचल”
हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति “मैला आंचल”
मनोज कुमार
1954 में प्रकाशित फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ का “मैला आंचल” हिन्दी साहित्य में आंचलिक उपन्यास की परंपरा को स्थापित करने का पहला सफल प्रयास है। हालाकि नागार्जुन ने रेणु से पहले लिखना शुरु किया। उनके ‘रतिनाथ की चाची’ (1949), ‘बलचनमा’, (1952), ‘नई पौध’ (1953) और ‘बाबा बटेसरनाथ’ (1954) में भी आंचलिक परिवेश का चित्रण हुआ है।
वैसे देखा जाए तो 1925 में प्रकाशित शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया’ में भोजपुरी जनपद का चित्रण बहुत ही मनभावन तरीक़े से हुआ है। हम मान सकते हैं कि आंचलिक उपन्यास परंपरा का यह पहला उपन्यास है। 1952 में प्रकाशित शिवप्रसाद रुद्र का ‘बहती गंगा’ भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। अन्य आंचलिक उपन्यासों में उदयशंकर भट्ट के ‘सागर, लहरें और मनुष्य’ (1955), रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूं’ (1958) और ‘मुर्दों का टीला’, देवेन्द्र सत्यार्थी के ‘ब्रह्मपुत्र’ (1956) और ‘दूध छाछ’, राजेन्द्र अवस्थी के ‘जंगल के फूल’, शैलेश मटियानी के ‘हौलदार’ (1960), रामदरश मिश्र के ‘पानी की प्राचीर’, शिवप्रसाद सिंह के ‘अलग अलग वैतरणी’, श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’, अमृतलाल नागर के ‘बूंद और समुद्र’ (1956), बलभद्र ठाकुर के ‘मुक्तावली’, हिमांशु श्रीवास्तव के ‘लोहे के पंख’, राही मासूम रज़ा के ‘आधा गांव’, मनहर चौहान के ‘हिरना सांवरी’, केशव प्रसाद मिर के ‘कोहवर की शर्त’, भैरव प्रसाद गुप्त के ‘गंगा मैया’, विवेकी राय के ‘लोक ऋण’, हिमांशु जोशी के ‘कमार की आग’, कृष्णा सोबती के ‘ज़िंदगीनामा’, ‘मितरो मरजानी’, जगदीश चंद्र के ‘कभी न छोड़े खेत’, बलवंत सिंह के ‘शत चोर और चांद’, आदि में और रेणु के भी अन्य उपन्यास जैसे ‘परती परिकथा’(1958), ’जुलूस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, व ‘पलटू बाबू रोड’ में अंचल विशेष के सजीव चित्र प्रस्तुत हुए हैं।
Monday, October 18, 2010
लस्ट फॉर लाइफ
महान चित्रकार वॉन गॉग के जीवन पर आधारित विश्वप्रसिद्ध उपन्यास
वॉन गॉग के अंतिम चित्र से बातचीत
एक पुराने परिचित चेहरे पर
न टूटने की पुरानी चाह थी
आंखे बेधक तनी हुई नाक
छिपने की कोशिश करता था कटा हुआ कान
दूसरा कान सुनता था दुनिया की बेरहमी को
व्यापार की दुनिया में वह आदमी प्यार का इंतजार करता था
मैंने जंगल की आग जैसी उसकी दाढी को छुआ
उसे थोडा-सा क्या किया नहीं जा सकता था काला
ऑखें कुछ कोमल कुछ तरल
तनी हुई एक हरी नस जरा सा हिली जैसे कहती हो तुम
हम वहां चलकर नही जा सकते
वहां आंखों को चौंधियाता हुआ यथार्थ है और अंधेरी हवा है
जनम लेते हैं सच आत्मया अपने कपडे उतारती है
और हम गिरते हैं वहीं बेदम
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'लस्ट फॉर लाइफ' एक ऐसे चित्रकार की उपन्यासात्मक जीवनी है, जिसका नाम आज इतिहास में दर्ज है। जो माडर्न आर्ट को स्थापित करने वाले चित्रकारों में से प्रमुख है। जिसका नाम लिए बिना आधुनिक चित्र कला की बात नहीं की जा सकती।
Sunday, October 17, 2010
विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!
पुस्तकायन ब्लाग .......की और से
आप सभी पाठकमित्रों एवं साहित्य प्रेमियों को विजयदशमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें !!
........संजय भास्कर
........संजय भास्कर
Saturday, October 16, 2010
गद्य में गीत और संगीत
नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर पुस्तकायन पर हाज़िर हूं!
आज की बात मैं अपने एक संस्मरण से शुरु करता हूं। एक बार मैं पुर्णिया से सहरसा होते हुए अपने घर समस्तीपुर आ रहा था। ट्रेन में झपकी लग गई। तब, जब आप आधा सोए और ज़्यादा जगे होते हैं, तो अगल-बगल के लोगों की बातें छन-छन कर कानों में पड़ती रहती है और आप उस माहौल में नहीं रहकर भी उसका हिस्सा बने होते हैं।
ऐसी ही स्थिति में मेरे कानों में यह संवाद पड़ा -----
“हौ! चाह ही पी लेते हैं। हो चाह बाला, एगो चाह दीजिए।”
“………”
“हे रौ! तों-हों पीबही कि ….?”
“आहिरौ बाप! केहन-केहन लोग सब पिबई छई, हम्मर मुंह की तिन कोनमा छई जे नई पीबई!”
“हो! दहो एकरो!!”
“बाबू फूल लीजिएगा के हाफ?”
“तोरा की बुझाई छौ …..?”
“हे-हौ! केतलीए के टोंटी लगा दहौ नय मूहें में, मन भैर पी लेतए!”
जी! यह है हमारा अंचल!! आज इस अंचल विशेष पर लिखी एक पुस्तक पढते वक़्त यह वाकया याद आ गया। …..
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Thursday, October 7, 2010
अभिनन्दन का उद्योग-पर्व
बाबा नागार्जुन की अप्रतिम व्यँग्य रचना ’ अभिनन्दन ’ पढ़ना अपने आपमें एक अनुभव है । साहित्यजगत विशेषकर हिन्दी साहित्यकारों के मध्य चलते घाल मेल और अभिनन्दन, सम्मानों के आँतरिक सत्य को बेरहमी और चुटीले ढँग से इस उपन्यास में उकेरते हैं, बाबा नागार्जुन । ऎसा नहीं है कि नागार्जुन हिन्दी-रचनाकारों के किसी असँतुष्ट घड़े से सम्बन्ध रखते रहे हों, और यह पुस्तक उनके असँतोष की कुँठा की उपज हो । साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत बाबा नागार्जुन ने सम्मान, अलँकरण की परवाह कभी से न की ! श्री वैद्यनाथ मिश्र ( 1911-1998 ) छपासग्रस्त भी न थे, लेखक के रूप में वह हिन्दी में नागार्जुन, मैथिली में यात्री और बाँग्ला में बैजनाथ के नाम को अमर कर गये । उनकी पहचान सदैव एक आवेगशील, प्रगतिशील रचनाकार की रहेगी, आम जनता से एक अभिजात्य दूरी बनाये रखने की अपेक्षा वह कभी और किसी बिन्दु पर सामाजिक मुक्ति-सँघर्ष में अपनी हिस्सेदारी से नहीं चूके ।
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डॉ. अमर कुमार,
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वाणी प्रकाशन
Sunday, September 26, 2010
अन्धेर नगरी
अन्धेर नगरी
पुस्तकें पढना मेरी हॉबी है। इसलिए जब ‘पुस्तकायन’ ब्लॉग पर नज़र पड़ी तो झट से इसका सदस्य बन गया। कई बार ऐसा होता है कि आप जब कोई पुस्तक पढते हैं तो उसकी कई बातें लोगों से बांटने का मन करता है। आज (२६ सितंबर, २०१०) कोलकाता से दिल्ली की यात्रा के वक़्त पढ़ने के लिए साथ में एक ऐसी पुस्तक थी जिसकी कई बातें बांटने का मन अनायास बन गया। यह पुस्तक थी “अन्धेर नगरी” एक लोककथा तो आपने सुनी ही होगी। ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा’। प्रस्तुत पुस्तक इसी लोककथा पर आधारित है।
Monday, September 13, 2010
एक करोड की बोतल
इस उपन्यास के माध्यम से हम 'एक गधे की आत्मकथा' लिखने वाले, उर्दू कथा साहित्य में अपनी अनूठी रचनाशीलता के लिए बहुचर्चित उपन्यासकार, प्रगतिशील और यथार्थवादी नजरिए से लिखे जानेवाले साहित्य के प्रमुख पक्षधरों में से एक, कृष्नचंदर के लेखन से परिचित हुए। (पुस्तक के परिचय से)
इस पुस्तक का पेपरबैक संस्करण जो कि मूल पुस्तक की अविकल प्रस्तुति होने का दावा करता है, कहीं रास्ते में किसी स्टेशन से खरीदी गई थी।
उपन्यास मुम्बई नगरिया की दो बिल्कुल धुर असमान जीवन स्तर का बहुत ही खूबसूरती से चित्रण करता है। कथा की नायिका झुग्गी बस्ती की गरीबी से अचनाक नाटकीय ढंग से एक करोडपति आदमी की बेटी की समस्त सुविधाऍं और वसीयत पा जाती है। यही कहानी का प्रस्थान बिंदु है।
Thursday, September 9, 2010
"...पूर्ण योगाभ्यास..इन्द्रदेव यति" (डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री "मयंक")
Thursday, September 2, 2010
पृथ्वी पर एक जगह - शिरीष कुमार मौर्य
नयी कविता के साथ एक समस्या है- इसे लिखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है और पढ़नेवाले कम से कमतर होते जा रहे हैं। ऐसे में एक युवा कवि एकदम अलग-थलग खड़े नजर आते हैं- शिरीष कुमार मौर्य, नयी कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर जो अपने लिखे से भी उतना ही हैरान करते हैं जितना अपने पढ़े से।
बात सन 2004 की है जब मैंने पहली बार शिरीष जी का नाम सुना था। उनका नाम प्रथम अंकुर मिश्र स्मृति कविता-सम्मान के लिये चुना गया था। अंकुर मेरा ममेरा भाई था, जिसके असमय दुखद अवसान के पश्चात उसकी स्मृति में इस सम्मान की
शुरूआत की गयी थी। वो चर्चा फिर कभी। ...तब से शिरीष जी की कविताओं के साथ कुछ ऐसा रिश्ता जुड़ा कि वो दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होता गया और उनकी कविताओं ने कभी कोई अवसर दिया ही नहीं कि इस रिश्ते में तनिक भी खटास आये। पिछले साल उनके दूसरे कविता-संकलन "पृथ्वी पर एक जगह" को जब प्रतिष्ठित लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान दिया गया तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। हम आज बात करेंगे इसी संकलन की...
Sunday, August 29, 2010
कुछ बातें पढने के बारे में
जब हमने यह ब्लॉग बनाया तो जेहन में एक छोटा सा ख्याल था कि समय निकालकर जो कुछ भी थोडा-बहुत पढा जाता है, उसे अपनी सामर्थ्य के अनुसार साझा करना एक अच्छा ख्याल साबित होगा। वही हम कर भी रहे हैं। माननीय सदस्यगण भी अपनी सुविधा और रुचि के अनुसार जब लिखना पसंद करेंगे लिखेंगे। क्योंकि हमारा जोर इस बात पर ज्यादा है बल्कि यह कहना चाहिए कि इस बात पर ही है कि हम क्या कर रहे हैं, बजाय इसके कि दूसरे लोग क्या नहीं कर रहे हैं :-)
पुस्तकें हमें जीवन को समाज को समझने में उन्हें गहराई से देखने में बहुत मददगार होती हैं। साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है लेकिन मेरी समझ है कि साहित्य समाज को देखने का सूक्ष्मदर्शी है, सुनने का ध्वनिवर्धक यंत्र है। इसे पढते हुए वह दिखाई देता है जो हमें पहले नहीं दिखा था वह आवाजें सुनाई दे जाती हैं, जो हमारे आसपास होती हुई भी हमें पहले कभी नहीं सुनाई दी थीं।
Friday, August 20, 2010
कामरेड का कोट
दोस्तों, अभी पिछले दिनों वामपंथ (विचलन) पर "हँस" के फ़रवरी, १९८९ अंक में प्रकाशित और "पाखी" के अगस्त २०१० अंक में पुनर्प्रकाशित सृंजय की बहुचर्चित कहानी - "कामरेड का कोट" पढ़ी. इस बार इसी पर बात करता हूँ...
"कामरेड का कोट" आज़ाद भारत में वामपंथी धारा की बौद्धिकता और जमीनी सच्चाइयों के बरक्स उसके नाकाम होने के कारणों की पड़ताल का खरा विश्लेषण प्रतुत करती है. मुख्य पात्र कमलाकांत को हमारे समाज में व्यवस्था विद्रोह की जरूरत और अनिवार्यता का मशाल उठाने वाले के रूप में पेश किया गया है. जब हालत मौखिक प्रतिरोध से आगे, "ग्राउंड जीरो" पर सक्रियता का, अपने अस्तित्व और 'सर्वाइवल"(सुरक्षा) का हो जाता है, तब मात्र बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चल सकता. क्रांति कोई रोमांटिसिज्म नहीं है और ना सिर्फ़ खा-पीकर अघाये मुखों से प्रवचन देने को जुटे शब्दवीरों की जुगाली का मंच और अकर्मण्य चापलूसों की भीड़ जुटाने का प्रयोजन. दुखद है कि, यह प्रवृति ना सिर्फ़ वामपंथ में बल्कि इधर प्राय: सभी धाराओं में पनप गयी है.
"कामरेड का कोट" आज़ाद भारत में वामपंथी धारा की बौद्धिकता और जमीनी सच्चाइयों के बरक्स उसके नाकाम होने के कारणों की पड़ताल का खरा विश्लेषण प्रतुत करती है. मुख्य पात्र कमलाकांत को हमारे समाज में व्यवस्था विद्रोह की जरूरत और अनिवार्यता का मशाल उठाने वाले के रूप में पेश किया गया है. जब हालत मौखिक प्रतिरोध से आगे, "ग्राउंड जीरो" पर सक्रियता का, अपने अस्तित्व और 'सर्वाइवल"(सुरक्षा) का हो जाता है, तब मात्र बौद्धिक विमर्श से काम नहीं चल सकता. क्रांति कोई रोमांटिसिज्म नहीं है और ना सिर्फ़ खा-पीकर अघाये मुखों से प्रवचन देने को जुटे शब्दवीरों की जुगाली का मंच और अकर्मण्य चापलूसों की भीड़ जुटाने का प्रयोजन. दुखद है कि, यह प्रवृति ना सिर्फ़ वामपंथ में बल्कि इधर प्राय: सभी धाराओं में पनप गयी है.
Sunday, August 15, 2010
मेरे सपनों का भारत
किसी भी इन्सान को जानने का सबसे आसान तरीका है उसकी कही, उसकी लिखी बातों को जानना, पढना और समझना। विशेष रूप से जब हम किसी ऐसे महापुरूष के बारे में जानना चाहते हों जिनको गुजरे, ज़माने बीत चुके हों तो उनके विचारों को जानने का सबसे आसान और उचित तरीका है उनके सार्वजनिक भाषणों का संकलन। यही सब सोचकर शायद "मेरे सपनों का भारत" लिखने का नेक काम किया गया होगा जो न सिर्फ़ बापू के विचारों से हमें अवगत कराता है बल्कि सफ़लतापूर्वक एक जीवन आदर्श पेश करता है।
Monday, August 9, 2010
फटीचर और ठाठदार दिखने के बीच चालीस पैसे का फर्क है
मकान (उपन्यास)
लेखक - श्रीलाल शुक्ल
पहला संस्करण - 1976
सातवीं आवृत्ति - 2004
प्रकाशक
राधाकृष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड,
जी - 17, जगतपुरी, दिल्ली - 110051
---------------------------------------------------यह वाक्य है, श्रीलाल शुक्ल के उपन्यास 'मकान' का । कुछ ऐसे लेखक होते हैं जिन्हें पढते समय आप कभी बोर नहीं होते । उनका अंदाज ही ऐसा होता है कि आप चाहे उनकी प्रारंभिक रचनाऍं पढें या लोकप्रिय होने लीजेन्ड बनने के बाद की, कभी बोरियत महसूस नहीं होती । श्रीलाल शुक्ल ऐसे ही लेखक हैं । इनकी मास्टर पीस 'रागदरबारी' से तो आप परिचित होंगे ही ।
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हिंदी दिवस पर आप सभी को हार्दिक शुभकामनायें आइये आज प्रण करें के हम हिंदी को उसका सम्मान वापस दिलाएंगे ! ***************************...
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