हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति “मैला आंचल”
मनोज कुमार
1954 में प्रकाशित फणिश्वरनाथ ‘रेणु’ का “मैला आंचल” हिन्दी साहित्य में आंचलिक उपन्यास की परंपरा को स्थापित करने का पहला सफल प्रयास है। हालाकि नागार्जुन ने रेणु से पहले लिखना शुरु किया। उनके ‘रतिनाथ की चाची’ (1949), ‘बलचनमा’, (1952), ‘नई पौध’ (1953) और ‘बाबा बटेसरनाथ’ (1954) में भी आंचलिक परिवेश का चित्रण हुआ है।
वैसे देखा जाए तो 1925 में प्रकाशित शिवपूजन सहाय के ‘देहाती दुनिया’ में भोजपुरी जनपद का चित्रण बहुत ही मनभावन तरीक़े से हुआ है। हम मान सकते हैं कि आंचलिक उपन्यास परंपरा का यह पहला उपन्यास है। 1952 में प्रकाशित शिवप्रसाद रुद्र का ‘बहती गंगा’ भी इसी श्रेणी में रखा जा सकता है। अन्य आंचलिक उपन्यासों में उदयशंकर भट्ट के ‘सागर, लहरें और मनुष्य’ (1955), रांगेय राघव के ‘कब तक पुकारूं’ (1958) और ‘मुर्दों का टीला’, देवेन्द्र सत्यार्थी के ‘ब्रह्मपुत्र’ (1956) और ‘दूध छाछ’, राजेन्द्र अवस्थी के ‘जंगल के फूल’, शैलेश मटियानी के ‘हौलदार’ (1960), रामदरश मिश्र के ‘पानी की प्राचीर’, शिवप्रसाद सिंह के ‘अलग अलग वैतरणी’, श्रीलाल शुक्ल के ‘राग दरबारी’, अमृतलाल नागर के ‘बूंद और समुद्र’ (1956), बलभद्र ठाकुर के ‘मुक्तावली’, हिमांशु श्रीवास्तव के ‘लोहे के पंख’, राही मासूम रज़ा के ‘आधा गांव’, मनहर चौहान के ‘हिरना सांवरी’, केशव प्रसाद मिर के ‘कोहवर की शर्त’, भैरव प्रसाद गुप्त के ‘गंगा मैया’, विवेकी राय के ‘लोक ऋण’, हिमांशु जोशी के ‘कमार की आग’, कृष्णा सोबती के ‘ज़िंदगीनामा’, ‘मितरो मरजानी’, जगदीश चंद्र के ‘कभी न छोड़े खेत’, बलवंत सिंह के ‘शत चोर और चांद’, आदि में और रेणु के भी अन्य उपन्यास जैसे ‘परती परिकथा’(1958), ’जुलूस’, ‘दीर्घतपा’, ‘कलंक मुक्ति’, व ‘पलटू बाबू रोड’ में अंचल विशेष के सजीव चित्र प्रस्तुत हुए हैं।
प्रसंगवश यह भी याद करते चलें कि अंग्रेज़ी लेखिका मारिया एडवर्थ (1768-1849) का आंचलिक उपन्यासकारों की श्रेणी में सबसे पहले नाम लिया जाना चाहिए, जिनकी कृति ‘कासल रैकर्न्ट’ 1800 में आई थी।
पर ‘रेणु’ जी का ‘मैला आंचल’ वस्तु और शिल्प दोनों स्तरों पर सबसे अलग है। इसमें एक नए शिल्प में ग्रामीण-जीवन को दिखलाया गया है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि इसका नायक कोई व्यक्ति (पुरुष या महिला) नहीं है, पूरा का पूरा अंचल ही इसका नायक है। दूसरी प्रमुख बात यह है कि मिथिलांचल की पृष्ठभूमि पर रचे इस उपन्यास में उस अंचल की भाषा विशेष का अधिक से अधिक प्रयोग किया गया है। खूबी यह है कि यह प्रयोग इतना सार्थक है कि वह वहां के लोगों की इच्छा-आकांक्षा, रीति-रिवाज़, पर्व-त्यौहार, सोच-विचार, को पूरी प्रामाणिकता के साथ पाठक के सामने उपस्थित करता है।
इसकी भूमिका, 9 अगस्त 1954, को लिखते हुए फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ कहते हैं,
“यह है मैला आंचल, एक आंचलिक उपन्यास।”
इस उपन्यास के केन्द्र में है बिहार का पूर्णिया ज़िला, जो काफ़ी पिछड़ा है। ‘रेणु’ कहते हैं,
“इसमें फूल भी है, शूल भी, धूल भी है, गुलाब भी, कीचड़ भी है, चंदन भी, सुंदरता भी है, कुरूपता भी – मैं किसी से दामन बचाकर नहीं निकल पाया।”
यही इस उपन्यास का यथार्थ है। यही इसे अन्य आंचलिक उपन्यासों से अलग करता है जो गांव की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर लिखे गए हैं। गांव की अच्छाई-बुराई को दिखाता प्रेमचंद, शिवपूजन सहाय, शिवप्रसाद रुद्र, भैरव प्रसाद गुप्त और नागार्जुन के कई उपन्यास हैं जिनमें गांव की संवेदना रची बसी है, लेकिन ये उपन्यास अंचल विशेष की पूरी तस्वीर प्रस्तुत नहीं करते। बल्कि ये उपन्यासकार गांवों में हो रहे बदलाव को चित्रित करते नज़र आते हैं। परन्तु ‘रेणु’ का ‘मेरीगंज’ गांव एक जिवंत चित्र की तरह हमारे सामने है जिसमें वहां के लोगों का हंसी-मज़ाक़, प्रेम-घृणा, सौहार्द्र-वैमनस्य, ईर्ष्या-द्वेष, संवेदना-करुणा, संबंध-शोषण, अपने समस्त उतार-चढाव के साथ उकेरा गया है। इसमें जहां एक ओर नैतिकता के प्रति तिरस्कार का भाव है तो वहीं दूसरी ओर नैतिकता के लिए छटपटाहट भी है। परस्पर विरोधी मान्यताओं के बीच कहीं न कहीं जीवन के प्रति गहरी आस्था भी है – “मैला´आंचल में”!
पूरे उपन्यास में एक संगीत है, गांव का संगीत, लोक गीत-सा, जिसकी लय जीवन के प्रति आस्था का संचार करती है। एक तरफ़ यह उपन्यास आंचलिकता को जीवंत बनाता है तो दूसरी तरफ़ उस समय का बोध भी दृष्टिगोचर होता है। ‘मेरीगंज’ में मलेरिया केन्द्र के खुलने से वहां के जीवन में हलचल पैदा होती है। पर इसे खुलवाने में पैंतीस वर्षों की मशक्कत है इसके पीछे, और यह घटना वहां के लोगों का विज्ञान और आधुनिकता को अपनाने की हक़ीक़त बयान करती है। भूत-प्रेत, टोना-टोटका, झाड़-फूक, में विश्वास करनेवाली अंधविश्वासी परंपरा गनेश की नानी की हत्या में दिखती है। साथ ही जाति-व्यवस्था का कट्टर रूप भी दिखाया गया है। सब डॉ.प्रशान्त की जाति जानने के इच्छुक हैं। हर जातियों का अपना अलग टोला है। दलितों के टोले में सवर्ण विरले ही प्रवेश करते हैं, शायद तभी जब अपना स्वार्थ हो। छूआछूत का महौल है, भंडारे में हर जाति के लोग अलग-अलग पंक्ति में बैठकर भोजन करते हैं। और किसी को इसपर आपत्ति नहीं है।
‘रेणु’ ने स्वतंत्रता के बाद पैदा हुई राजनीतिक अवसरवादिता, स्वार्थ और क्षुद्रता को भी बड़ी कुशलता से उजगर किया है। गांधीवाद की चादर ओढे हुए भ्रष्ट राजनेताओं का कुकर्म बड़ी सजगता से दिखाया गया है। राजनीति, समाज, धर्म, जाति, सभी तरह की विसंगतियों पर ‘रेणु’ ने अपने कलम से प्रहार किया है। इस उपन्यास की कथा-वस्तु काफ़ी रोचक है। चरित्रांकन जीवंत। भाषा इसका सशक्त पक्ष है। ‘रेणु’ जी सरस व सजीव भाषा में परंपरा से प्रचलित लोककथाएं, लोकगीत, लोकसंगीत आदि को शब्दों में बांधकर तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक परिवेश को हमारे सामने सफलतापूर्वक प्रस्तुत करते हैं।
अपने अंचल को केन्द्र में रखकर कथानक को “मैला आंचल” द्वारा प्रस्तुत करने के कारण फणीश्वरनाथ ‘रेणु’ हिन्दी में आंचलिक उपन्यास की परंपरा के प्रवर्तक के रूप में प्रतिष्ठित हुए। अपने प्रकाशन के 56 साल बाद भी यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक उपन्यास के अप्रतिम उदाहरण के रूप में विराजमान है। यह केवल एक उपन्यास भर नहीं है, यह हिन्दी का व भारतीय उपन्यास साहित्य का एक अत्यंत ही श्रेष्ठ उपन्यास है और इसका दर्ज़ा क्लासिक रचना का है। इसकी यह शक्ति केवल इसकी आंचलिकता के कारण ही नहीं है, वरन् एक ऐतिहासिक दौर के संक्रमण को आंचलिकता के परिवेश में चित्रित करने के कारण भी है। बोली-बानी, गीतों, रीतिरिवाज़ों आदि के सूक्ष्म ब्योरों से है। जहां एक ओर अंचल विशेष की लोकसंस्कृति की सांस्कृतिक व्याख्या की गई है वहीं दूसरी ओर बदलते हुए यथार्थ के परिप्रेक्ष्य में लोक-व्यवहार के विविध रूपों का वर्णन भी किया गया है। इन वर्णनों के माध्यम से ‘रेणु’ ने “मैला आंचल” में इस अंचल का इतना गहरा और व्यापक चित्र खींचा है कि सचमुच यह उपन्यास हिन्दी में आंचलिक औपन्यासिक परंपरा की सर्वश्रेष्ठ कृति बन गया है।
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लेखक – फणीश्वरनाथ रेणु
राजकमल पेपर बैक्स में
पहला संस्करण : 1984
दूसरी आवृति : 2009
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली-110 002
द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 65 रु.
बहुत अच्छा विवरण दिया है आपने . आज रेणु जी के बारे में और अधिक जानने का मौका मिला.
ReplyDeleteशुक्रिया इस जानकारी के लिए.
अब हम भी इसके अनुकरण करता बन गए है तो आगे भी ऐसे अच्छे अच्छे लेख पढ़ने को मिलते रहेंगे. एक बार फिर से शुक्रिया.
मैला आंचल तो मील का पत्थर है
ReplyDeleteप्रशंसनीय पोस्ट .
ReplyDeleteकृपया ग्राम चौपाल में पढ़े - " भविष्यवक्ता ऑक्टोपस यानी पॉल बाबा का निधन "
जन्म दिन बहुत बहुत बधाई हो !
ReplyDeleteमनोज जी आपके इस प्रयास के बारे में पहली बार जाना। बधाई एवं शुभकामनाएं।
ReplyDeleteपुस्तक प्रकाशन के लिए आप सम्पर्क कर सकते हैं।
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