नयी कविता के साथ एक समस्या है- इसे लिखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है और पढ़नेवाले कम से कमतर होते जा रहे हैं। ऐसे में एक युवा कवि एकदम अलग-थलग खड़े नजर आते हैं- शिरीष कुमार मौर्य, नयी कविता का एक सशक्त हस्ताक्षर जो अपने लिखे से भी उतना ही हैरान करते हैं जितना अपने पढ़े से।
बात सन 2004 की है जब मैंने पहली बार शिरीष जी का नाम सुना था। उनका नाम प्रथम अंकुर मिश्र स्मृति कविता-सम्मान के लिये चुना गया था। अंकुर मेरा ममेरा भाई था, जिसके असमय दुखद अवसान के पश्चात उसकी स्मृति में इस सम्मान की
शुरूआत की गयी थी। वो चर्चा फिर कभी। ...तब से शिरीष जी की कविताओं के साथ कुछ ऐसा रिश्ता जुड़ा कि वो दिन-ब-दिन प्रगाढ़ होता गया और उनकी कविताओं ने कभी कोई अवसर दिया ही नहीं कि इस रिश्ते में तनिक भी खटास आये। पिछले साल उनके दूसरे कविता-संकलन "पृथ्वी पर एक जगह" को जब प्रतिष्ठित लक्ष्मण प्रसाद मंडलोई सम्मान दिया गया तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा। हम आज बात करेंगे इसी संकलन की...
"पृथ्वी पर एक जगह" के सफ़े-दर-सफ़े से गुजरना एक अद्भुत अनुभव है, एक विचित्र-सी यात्रा है। इन कविताओं में कहीं भी शब्दों की बाजीगरी नहीं है, कहीं भी दुरूह बिम्बों का जमावड़ा नहीं है। नयी कविता से जो आमतौर पर शिकायत रही है कि इसमें व्याप्त एक तरह की छद्म आधुनिकता, एक तरह का बनावटी नयापन सिमट आया है जिससे सामान्य पाठक दूर होते जा रहे हैं..."पृथ्वी पर एक जगह" इस शिकायत का एक बहुत हद तक उपयुक्त जवाब है। नयी कविता के बढ़ते हुजूम में जब ऐसा प्रतित होने लगा है कि कवि अपनी पहचान खोता जा रहा है...मानो पचासों कवि मिलकर एक साथ एक ही बात को एक ही अंदाज में छोटी-बड़ी पंक्तियों को ऊपर-नीचे सजा कर कविता का भ्रम पैदा करने की कोशिश में जुटे हुये हैं, शिरीष जी अपनी इस किताब के जरिये इस भीड़चाल में अपनी अलग पदचाप बनाये आते हैं। लगभग सवा दो सौ पन्नों को समेटे ये किताब शीर्षक-दर-शीर्षक, जुमले-दर-जुमले, बिम्ब-दर-बिम्ब एक गज़ब का मोह पैदा करती है- नयी कविता के प्रति खास तौर पर और कवि महोदय के लिये अलग से।
लगभग अस्सी कविताओं का ये संकलन कवि की सूक्ष्म संवेदना पर जहाँ एक तरफ पाठकों को हैरान करती है, वहीं कई...कई-कई बार पाठकों को एक झटका देती है कि अरे! सच तो...हाँ, ठीक तो कहता है कवि!!! आइये, शिरीष जी की इन कविताओं से होकर उसी तरह ले चलता हूँ आपसब को, जैसे मैं चला था। उनकी एक कविता "हल" मैंने बहुत साल पहले पढ़ी थी और जो इस संकलन की पहली कविता के तौर पर शुमार है। जब भी अपने गाँव जाता हूँ, चाचा की बखारी में रखा हुआ वो मुआ हल सचमुच मुझे "किसी दुबके हुए जानवर की तरह लगता है" जो अभी एक लम्बी छंलाग लगा कर गायब हो जायेगा। "हल" और "भूसे" को छूकर निकलता हुआ अचानक से दोस्तों की "गालियाँ" सुनकर ठिठक जाता हूँ। सचमुच कितने पराये लगेंगे दोस्त ना अगर नहीं देंगे गालियाँ। "शरद का प्रथम दिवस" पर मैं भी कवि के साथ-साथ उदार-गम्भीर, ज्यादा-कम और मैं-हम एकसाथ होना चाहता हूँ। "पहाड़ पर आँधी" जब आती है तो भले ही कवि के यहाँ कुछ भी न हो सिवा परदे के हिलने के, मेरा कमबख्त अंतर्मन उन गोल-गोल घूमते छप्परों पर जा टिकता है। 2002 का वो गुजरात जिसे चाह कर भी मेरा
कवि मुझे भूलाने नहीं देता तो मैं भागकर उन लड़कियों से मिलने चला जाता हूँ जो कवितायें पढ़ती हैं। "शालिनी" से मिलकर आपको बरबस मन करेगा कि कवि को फोन करें कि क्या पता अगली कविता वो आपके फोन करने पर रच डाले। "कविता पढ़नेवाली लड़कियों" पर मैं देर तक ठिठका रहता हूँ...खूब देर तक...और फिर अपनी ही झेंप मिटाने के लिये "जीवन-राग" सुनने निकल पड़ता हूँ। संकलन की आखिरी तेरह कवितायें "जीवन-राग" के तहत अलग से अपनी धुन सुनाती हैं, जिसमें कुमार गंधर्व का अनूठा अलाप है तो भीमसेन जी की ऊँची तान भी है, मुकुल जी की तोड़ी है तो सुल्तान खाँ साब की सारंगी भी।
...और फिर एकदम से ललित जी{शिल्पायन प्रकाशन वाले} से की हुई बहस याद आती है मुझे। "रूलाई" उन्हें भी बहुत पसंद
थी और मुझे भी। किंतु मैं बार-बार कविता पढ़नेवाली लड़कियों का जिक्र छेड़ता और वो घूम-फिर कर "रुलाई" पर वापस आ जाते। "पृथ्वी पर एक जगह" खरीदने के लिये जब मैं यमुना पार पुरानी दिल्ली में ’शिल्पायन’ पहुँचा तो मुझे जरा भी अंदाजा नहीं था कि प्रकाशक महोदय खुद भी मेरी तरह शिरीष जी कि कविताओं के मुरीद होंगे।
खैर, मैं जो इन कविताओं की चर्चा करता रहूँ तो ये पोस्ट बहुत लंबी हो जायेगी। फिलहाल इस किताब की अपनी सर्वाधिक चहेती कविता आपसब को सुनाना चाहूँगा, जो "एक जुलाई" शीर्षक से है- श्रीमति शिरीष का जन्म-दिवस। सुनिये:-
किसी
पके हुये फल-सा गिरा यह दिन मेरे सबसे कठिन दिनों में
उस पेड़ को मेरा सलाम
जिस पर यह फला
सलाम उस मौसम को
उस रौशनी को
और उस नम सुखद अँधेरे को भी
जिसमें यह पका
अभी बाकी हैं इस पर
सबसे मुश्किल वक्तों के निशान
मेरी प्यारी
कैसी कविता है यह जीवन
जिसे मेरे अलावा
बस तू समझती है
तेरे अलावा बस मैं!
.....उफ़्फ़्फ़्फ़, जितनी बार इस कविता को पढ़ता हूँ कुछ अजीब-सा हो जाता है। खैर, शिल्पायन प्रकाशन की ये किताब हर कविता-प्रेमी के लिये एक जरूरी-खरीद है। किताब की कीमत महज दो सौ पचास रूपये है और शिल्पायन के ललित जी से संपर्क किया जा सकता है 09810101036 पर। शिरीष मौर्य साब नैनीताल की खूबसूरत वादियों में रहते हैं और संपर्क-सूत्र 09412963674 है। उनका ई-मेल shirish.maurya@gmail.com है।
फिलहाल इतना ही। अगली बार मिलवाता हूँ एक और अद्भुत कवि से....
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ReplyDeleteगौतम, पूरा आलेख पढ़ने के बाद मुँह से हठात ही निकल पड़ा, " सँगीनों के साये में मोम सा दिल ! "
तुम्हारे चयन की तारीफ़ तो क्या करूँ, लालित्य के प्रति तुम्हारी निष्ठा का कायल होता जा रहा हूँ ।
शिरीष जी को मैंनें कम ही पढ़ा है, जीवन के धवल पक्ष पर वक़्त के थपेड़ों से आशँकित यह कविता उनके अँदाज़े-बयाँ को बखूबी सामने लाती है । काश एक-दो अन्य कवितायें भी यहाँ पर उपलब्ध होतीं ।
ReplyDeleteमुझे अक्सर लगता है कि
मैं शायद पहली बार ही रोया हूओँगा
माँ के गर्भ के भीतर ही
जैसे समुद्रों में मछलियाँ रोती हैं
चुपचाप
अथाल पानी में अपने आँसुओं का
थोड़ा नमक मिलाती हुई
हो सकता है उनके
और तमाम जलचरों के
रोने से ही
खारे हो गयें हों
समुद्र
शिरीष का यह ’लगना’ ही बहुतों को अवाक कर देगा ।
गौतम जी, आपकी लेखनी भी कम कवितामयी नहीं है. शिरीष जी प्रिय कवियों में से हैं. आपने इस संकलन से बहुत बढ़िया ढंग से परिचय कराया. धन्यवाद. आगे भी आपसे इसी तरह बढ़िया पोस्ट की आशा है.
ReplyDeletehttp://www.shabdamay.blogspot.com/
शिरीष की कविताओं का आशिक मैं भी हूं…इस किताब पर पिछले काफ़ी अरसे से लिखने की कोशिश कर रहा हूं पर हर बार लगता है कुछ छूट गया। आपने प्रचलित तरीकों से बिल्कुल अलग जिस पर्सनल टच के साथ इन कविताओं के लिये प्रवेश द्वार खोला है, वह सराहनीय है…आपका आभार और शिरीष को ढेर सारी शुभकामनायें
ReplyDeleteशिरीष जी को मैंनें कम ही पढ़ा है,
ReplyDeleteकृष्ण जन्माष्टमी के मंगलमय पावन पर्व अवसर पर ढेरों बधाई और शुभकामनाये ...
ReplyDeleteकिताब पढ़नी पड़ेगी।
ReplyDeleteसच है, प्रवीण जी की तरह इस समीक्षा को पढने के बाद किताब पढने की इच्छा हो रही है. कल ही ललित जी से सम्पर्क करती हूं.
ReplyDelete"नयी कविता के साथ एक समस्या है- इसे लिखने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही है और पढ़नेवाले कम से कमतर होते जा रहे हैं।"
ReplyDeleteआपकी यह समीक्षा भी शिरीष कुमार मौर्य की कविता की तरह ही है ।
कविता कोश के लिंक पर जाकर कुछ कविताऍं पढी गईं। इनमें कविता पढ़नेवाली लड़कियॉं खासतौर पर पसंद आई।
"इन कविताओं में कहीं भी शब्दों की बाजीगरी नहीं है, कहीं भी दुरूह बिम्बों का जमावड़ा नहीं है। नयी कविता से जो आमतौर पर शिकायत रही है कि इसमें व्याप्त एक तरह की छद्म आधुनिकता, एक तरह का बनावटी नयापन सिमट आया है जिससे सामान्य पाठक दूर होते जा रहे हैं"
शिरीष कुमार मौर्य जी की कविताएँ पढ़ाने और उस पर उम्दा आलेख लिखने के लिए आभार।
ReplyDeleteजी हाँ. किताब एक ज़रूरी खरीद है और मस्ट रीड भी.शुक्रिया अपने प्रिय कवि और आत्मीय 'फ्रेंड फिलौसफ़र और गाइड' को यहाँ लाने का.
ReplyDeleteshukriya share karne ke liye....
ReplyDeleteA Silent Silence : Mout humse maang rahi zindgi..(मौत हमसे मांग रही जिंदगी..)
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अशा है कि अब शिशिर जी की और कवितायें भी पढने को मिलेंगे। बहुत अच्छा लगा उनके बारे मे जान कर। धन्यवाद।
ReplyDeletenice
ReplyDeleteआपने लाख रूपये की एक बात कही कि कविता लिखने वाले ज्यादा है और पढने वाले कम. कविता लेखन की अपनी महान परंपरा को बचाने के लिए ठोस कदम उठाने आवह्यक है. इस पोस्ट के लिएधन्यवाद्.
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