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Tuesday, October 9, 2012
Sunday, October 7, 2012
लगभग अनामंत्रित - अशोक कुमार पांडेय
कवियों की बेतरह बढ़ती भीड़ में कविता एकदम से जैसे लुप्तप्राय हो गई है...हर जगह से, हर ओर से| मैं कोई आलोचक नहीं, न ही कवि हूँ| हाँ, कविताओं का समर्पित पाठक हूँ और एक तरह का दंभ करता हूँ अपने इस पाठक होने पर| अच्छी-बुरी सारी कवितायें पढ़ता हूँ| कविताओं की किताबें खरीद कर पढ़ता हूँ| पढ़ता हूँ कि अच्छे-बुरे का भेद जान सकूँ| इसी पढ़ने में कई अच्छे कवियों की अच्छी "कविताओं" से मुलाक़ात हो जाती है| खूब पढ़ने का प्लस प्वाइंट :-) .... अशोक कुमार पांडेय की "लगभग अनामंत्रित" ऐसी ही एक किताब है-एक अच्छे कवि की अच्छी कविताओं का संकलन|
करीब पचास कविताओं वाली ये किताब कहीं से भी कविताओं के भार से दबी नहीं मालूम पड़ती, उल्टा अपने लय-प्रवाह-शिल्प-बिम्ब के सहज प्रयोग से आश्वस्त सी करती है कि कविता का भविष्य उतना भी अंधकारमय नहीं है जितना कि आए दिन दर्शाया जा रहा विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में| विगत तीन-एक सालों से अशोक कुमार पांडेय की कवितायें पढ़ता आ रहा हूँ...नेट पर और तमाम पत्रिकाओं में| स्मृतियों के गलियारे में फिरता हूँ तो जिस कविता ने सबसे पहले मेरा ध्यान आकृष्ट किया था इस कवि की ओर, वो थी एक सैनिक की मौत| शीर्षक ने ही स्वाभाविक रूप से खींचा था मेरा ध्यान और पढ़ा तो जैसे कि स्तब्ध-सा रहा गया था| यूँ वैचारिक रूप से इस कविता की कुछ बातों से मैं सहमत नहीं था, न ही कोई सच्चा सैनिक होगा...लेकिन पूरी रचना ने अपने समस्त कविताई अवतार में मेरे अन्तर्मन को अजब-गज़ब ढंग से छुआ| किताब में ये कविता चौथे क्रमांक पर शामिल है| किताब में शामिल कुल अड़तालीस कविताओं में कई सारी कवितायें पसंद हैं मुझे और सबका जिक्र करना संभव नहीं, लेकिन कहाँ होगी जगन की अम्मा , चाय अब्दुल और मोबाइल और माँ की डिग्रियाँ जो किताब में क्रमश: तीसरे, छठे और ग्यारहवें क्रमांक पर शामिल हैं, का उल्लेख किए बगैर रहा न जायेगा|
जहाँ "कहाँ होगी जगन की अम्मा" अपने अद्भुत शिल्प और छुपे आवेश में बाजार और मीडिया का सलीके से पोशाक उतारती है और जिसे पढ़कर उदय प्रकाश जी कहते हैं "बहुत ही मार्मिक लेकिन अपने समय के यथार्थ की संभवत: सबसे प्रकट और सबसे भयावह विडंबना को सहज आख्यानात्मक रोचकता के साथ व्यक्त करती एक स्मरणीय कविता" ...वहीं दूसरी ओर "चाय, अब्दुल और मोबाइल" मध्यमवर्गीय (महत्व)आकांक्षाओं पर लिखा गया एक सटीक मर्सिया है| दोनों ही कवितायें बड़ी देर तक गुमसुम कर जाती हैं पढ़ लेने के बाद| "माँ की डिग्रियाँ" तो उफ़्फ़...एक विचित्र-सी सनसनी छोड़ जाती है हर मोड़ पर, हर ठहराव पर| इस कविता का शिल्प भी कुछ हटकर है, जहाँ कवि अपनी माँ के अफसाने को लेकर अपनी प्रेयसी से मुखातिब है| स्त्री-विमर्श नाम से जो कुछ भी चल रहा है साहित्यिक हलके में, उन तमाम "जो कुछों" में अशोक कुमार पाण्डेय की ये कविता शर्तिया रूप से कई नये आयाम लिये अलग-सी खड़ी दिखती है|
"लगभग अनामंत्रित" की कई कवितायें हैं जिक्र के काबिल| एक और कविता "मैं धरती को एक नाम देना चाहता हूँ" बिलकुल ही अलग-सी विषय को छूती है| जहाँ तक मेरी जानकारी है तो दावे से कह सकता हूँ कि ये विषय शायद अछूता ही है अब तक कविताओं की दुनिया में| पिता का अपनी बेटी से किया हुआ संवाद...एक पिता जिसे बेटे की कोई चाह नहीं और जिसके पीछे सारा कुनबा पड़ा हुआ है कि वंश का क्या होगा...और कुनबे की तमाम उदासी से परे वो अपनी बेटी से कहता है "विश्वास करो मुझ पर खत्म नहीं होगा ये शजरा/वह तो शुरू होगा मेरे बाद/तुमसे"| इस कविता से मेरा खास लगाव इसलिए भी है कि खुद भुक्तभोगी हूँ और अगर मुझे कविता कहने का सऊर होता तो कुछ ऐसा ही कहता|
अशोक कुमार पाण्डेय के पास अपना डिक्शन है एक खास, जो उन्हें अलग करता है हर सफे, हर वरक पर उभर रहे तथाकथित कवियों के मजमे से| अपने बिम्ब हैं उनके और उन बिंबों में एक सहजता है...जान-बूझ कर ओढ़ी हुई क्लिष्टता या भयावह आवरण नहीं है उनपर, जो हम जैसे कविता के पाठकों को आतंकित करे| उनके कई जुमले हठात चौंका जाते हैं अपनी कल्पनाशीलता से और शब्दों के चुनाव से|
चंद जुमलों की बानगी ....
-बुरे नहीं वे दिन भी/जब दोस्तों की चाय में/दूध की जगह मिलानी होती थी मजबूरियाँ (सबसे बुरे दिन)
-अजीब खेल है/कि वजीरों की दोस्ती/प्यादों की लाशों पर पनपती है (एक सैनिक की मौत)
-पहले कविता पाठ में उत्तेजित कवि-सा बतियाता अब्दुल (चाय, अब्दुल और मोबाइल)
-जुलूस में होता हूँ/तो किसी पुराने दोस्त-सा/पीठ पर धौल जमा/निकल जाती है कविता (आजकल)
-उदास कांधों पर जनाजे की तरह ढ़ोते साँसें/ये गुजरात के मुसलमान हैं/या लोकतंत्र के प्रेत (गुजरात 2007)
दो-एक गिनी-चुनी कवितायें ऐसी भी हैं किताब में, जिन्हें संकलित करने से बचा जा सकता था, जो मेरे पाठक मन को थोड़ी कमजोर लगीं....विशेष कर "अंतिम इच्छा" और "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश"| "अंतिम इच्छा" को पढ़ते हुये लगता है जैसे कविता को कहना शुरू किया गया कुछ और सोच लिए और फिर इसे कई दिनों के अंतराल के बाद पूरा किया गया| विचार का तारतम्य टूटता दिखता है...सोच का प्रवाह जैसे बस औपचारिक सा है| वहीं "तुम्हें प्रेम करते हुये अहर्निश" में ऐसी झलक मिलती है कि कवि को 'अहर्निश' शब्द-भर से लगाव था जिसको लेकर बस एक कविता बुन दी गई|

...और अंत में चलते-चलते इस किताब की मेरी सबसे पसंदीदा कविता| एक प्रेम-कविता... प्रेम की एक बिल्कुल अलग अनूठी सी कविताई प्रस्तुति, प्रेम को और-और शाश्वत...और-और विराट बनाती हुई| सुनिए:-
मत करना विश्वास
मत करना विश्वास/अगर रात के मायावी अंधकार में
उत्तेजना से थरथराते होठों से/किसी जादुई भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम्हारा यूँ ही मैं
मत करना विश्वास/अगर सफलता के श्रेष्ठतम पुरुस्कार को
फूलों की तरह सजाता हुआ तुम्हारे जूड़े में
उत्साह से लड़खड़ाती भाषा में कहूँ

मत करना विश्वास/अगर लौटकर किसी लंबी यात्रा से
बेतहाशा चूमते हुये तुम्हें/एक परिचित-सी भाषा में कहूँ
सिर्फ तुम ही आती रही स्वप्न में हर रात
हालाँकि सच है यह/ कि विश्वास ही तो था वह तिनका
जिसके सहारे पार किए हमने/दुख और अभावों के अनंत महासागर
लेकिन फिर भी पूछती रहना गाहे ब गाहे
किसका फोन था कि मुस्कुरा रहे थे इस कदर?
पलटती रहना यूँ ही कभी-कभार मेरी पासबुक
करती रहना दाल में नमक जितना अविश्वास
हँसो मत/जरूरी है यह
विश्वास करो/तुम्हें खोना नहीं चाहता मैं...
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