शिखा वार्ष्णेय ब्लॉग
जगत का जाना माना नाम है पत्रकारिता में उन्होंने तालीम हासिल की है और स्वतंत्र पत्रकार के रूप में वो लेखन कार्य
से जुडी हुई हैं .. आज उनकी पुस्तक “ स्मृतियों में रूस “ पढ़ने
का सुअवसर मिला .. यह पुस्तक उनके अपने उन अनुभवों पर आधारित है जो उनको अपनी
पत्रकारिता की शिक्षा के दौरान मिले ..पाँच वर्ष के परास्नातक के पाठ्यक्रम को
करते हुए जो कुछ उन्होंने महसूस किया और भोगा उस सबका निचोड़ इस पुस्तक में पढ़ने को
मिलता है .उनकी दृष्टि से रूस के संस्मरण पढ़ना निश्चय ही रोचक है . स्कॉलरशिप के
लिए चयन होने पर भारतीय माता पिता के मनोभावों की क्या दशा होती है उसको सुन्दर
शैली में बाँधा है
नए देश में सबसे पहले
समस्या आती है भाषा की ..और इसी का खूबसूरती से वर्णन किया है जब उनको अपने बैचमेट
के साथ चाय की तलब लगी ...
अनेक तरह से समझाने
का प्रयास करने के बाद पता चला कि रुसी में भी चाय को चाय ही कहते हैं .
शिखा ने अपनी पुस्तक में मात्र अपने अनुभव
नहीं बांटे हैं ... अनुभवों के साथ वहाँ की संस्कृति , लोगों के व्यवहार , दर्शनीय स्थल का
सूक्ष्म विवरण , उस समय की रूस की
आर्थिक व्यवस्था , राजनैतिक
गतिविधियों सभी पर अपने विचार प्रस्तुत किये हैं .जिससे पाठकों को रूस के
बारे में अच्छी खासी जानकारी हासिल हो जाती है ..
रुसी लोग कितने सहायक होते हैं इसकी एक झलक
मिलती है जब भाषा सीखने के लिए
उन्हें वोरोनेश भेजा गया .और जिस तरह वह एक
रुसी लडकी की मदद से वो यूनिवर्सिटी पहुँच पायीं उसका जीवंत वर्णन पढ़ने को
मिलता है .
उस समय रूस में बदलाव हो रहे
थे ---और उसका असर वहाँ की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ रहा था ..इसकी झलक भी इस पुस्तक
में दिखाई देती है .
वहाँ के दर्शनीय
स्थलों की जानकारी काफी प्रचुरता से दी गयी है ... इस पुस्तक में रुसी लडकियों की
सुंदरता से ले कर वहाँ के खान पान पर भी विस्तृत दृष्टि डाली गयी है ..यहाँ तक की
वहाँ के बाजारों के बारे में भी जानकारी मिलती है ..
शिखा ने जहाँ अपने इन
संस्मरणों में पाँच साल के पाठ्यक्रम के तहत उनके साथ होने वाली घटनाओं और उनसे
प्राप्त अनुभवों को लिखा है वहीं रूस के वृहद् दर्शन भी कराये हैं ...
इस पुस्तक को पढ़ कर विदेश में पढ़ने वाले विद्यार्थियों को किस किस कठिनाई से
गुज़रना पड़ता है इसका एहसास हुआ ..इतनी कम उम्र में अनजान देश और अनजान लोगों
के बीच खुद को स्थापित करना , आने वाली हर कठिनाई का सामना करना ,भावुक क्षणों में
भी दूसरों के सामने कमज़ोर न पड़ना , गलत को स्वीकार न करना और हर हाल में सकारात्मक
सोच ले कर आगे बढ़ना . ये कुछ लेखिका की विशेषताएँ हैं जिनका खुलासा ये पुस्तक करती
है . पुस्तक पढते हुए मैं विवश हो गयी यह सोचने पर कि कैसे वो वक्त निकाला
होगा जब खाने को भी कुछ नहीं मिला और न ही रहने की जगह .प्लैटफार्म पर रहते हुए
तीन दिन बिताने वो भी बिना किसी संगी साथी के ..इन हालातों से गुज़रते हुए और
फिर सब कुछ सामान्य करते हुए कैसा लगा होगा ये बस महसूस ही किया जा
सकता है ..
हांलांकि यह कहा जा सकता है कि पुस्तक की भाषा साहित्यिक न हो कर आम बोल – चाल की भाषा है ..
पर मेरी दृष्टि में यही इसकी विशेषता है ... पुस्तक की भाषा में मौलिकता है और यह
शिखा की मौलिक शैली ही है जो पुस्तक के हर पृष्ठ को रोचक बनाये हुए है
..भाषा सरल और प्रवाहमयी है जो पाठक को अंत तक बांधे रखती है कई जगह चुटीली
भाषा का भी प्रयोग है जो गंभीर परेशानी में भी हास्य का पुट दे जाती है --
अब उसने भी किसी तरह हमारे शब्द कोष में से ढूँढ ढूँढ कर हमसे पूछा कि कहाँ
जाना है. हमने बताया. अब उसे भी हमारे उच्चारण पर शक हुआ. इसी तरह कुछ देर शब्दकोष के साथ हम दोनों कुश्ती करते रहे अंत में हमारा दिमाग चला और हमने फटाक से अपना यूनिवर्सिटी का नियुक्ति पत्र उसे दिखाया.
.हाँलांकि इस
पुस्तक के कुछ अंश हम शिखा के ब्लॉग स्पंदन पर पढ़ चुके हैं लेकिन उसके अतिरिक्त भी
काफी कुछ बचा था जो इस पुस्तक के ज़रिये हम तक पहुंचा है
पुस्तक में दिए गए रूस के दर्शनीय स्थलों
के चित्र पुस्तक को और खूबसूरती प्रदान कर रहे हैं . कुल मिला कर रोचक अंदाज़
में रूस के बारे में जानना हो तो यह पुस्तक अवश्य पढ़ें ..
अच्छी समीक्षा की है ।
ReplyDeleteशिखा जी के लेखन में तो वैसे भी जादू है । बहुत बढ़िया लिखती हैं ।
पुस्तक प्रकाशन के लिए उनको बधाई ।
समीक्षा पढ़कर पुस्तक पढ़ने की इच्छा हो रही है।
ReplyDeleteपुस्तक प्रकाशन के लिये शिखाजी को फ़िर से बधाई!
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा
ReplyDeleteपुस्तक की जानकारी देने एवं शिखा जी की इस उपलब्धी के लिए बहुत-बहुत बधाई...!
acchi sameeksha hai.
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा
ReplyDeleteअच्छी समीक्षा.
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