नमस्कार मित्रों! मैं मनोज कुमार एक बार फिर पुस्तकायन पर हाज़िर हूं!
आज की बात मैं अपने एक संस्मरण से शुरु करता हूं। एक बार मैं पुर्णिया से सहरसा होते हुए अपने घर समस्तीपुर आ रहा था। ट्रेन में झपकी लग गई। तब, जब आप आधा सोए और ज़्यादा जगे होते हैं, तो अगल-बगल के लोगों की बातें छन-छन कर कानों में पड़ती रहती है और आप उस माहौल में नहीं रहकर भी उसका हिस्सा बने होते हैं।
ऐसी ही स्थिति में मेरे कानों में यह संवाद पड़ा -----
“हौ! चाह ही पी लेते हैं। हो चाह बाला, एगो चाह दीजिए।”
“………”
“हे रौ! तों-हों पीबही कि ….?”
“आहिरौ बाप! केहन-केहन लोग सब पिबई छई, हम्मर मुंह की तिन कोनमा छई जे नई पीबई!”
“हो! दहो एकरो!!”
“बाबू फूल लीजिएगा के हाफ?”
“तोरा की बुझाई छौ …..?”
“हे-हौ! केतलीए के टोंटी लगा दहौ नय मूहें में, मन भैर पी लेतए!”
जी! यह है हमारा अंचल!! आज इस अंचल विशेष पर लिखी एक पुस्तक पढते वक़्त यह वाकया याद आ गया। …..
और कोलकाता के इस दस मंज़िले फ़्लैट के सबसे ऊपर वाले फ़्लोर पर जब नीचे हो रही दुर्गा पूजा में बजाते ढाकी के ढाक की आवाज “डिगिर-डिगिर …. डिमिर-डिमिर …. डीम्म-डिम्म!” छन-छन कर मेरे कानों में पड़ा तो मुझे वही मंज़र याद आता है जब मैं उस ट्रेन में आधा सोए और ज़्यादा जगे होकर छन-छन कर कानों में पड़ रही अगल-बगल के लोगों की बातें सुन रहा था। फिर बंगाल की इस भूमि से अपने बिहार को देखना और अधिक सुखद अनुभूति दे रहा है मुझे। हम तो पुराने दरभंगा ज़िले के हैं, समस्तीपुर तो बहुत बाद में ज़िला बना। …. और दरभंगा को बंगाल का द्वार कहा जाता है। …. और यहां (बंगाल) का ढाकी जब ढाक पीटता है तो मुझे याद आता है बिहार के अपने अंचल का ढोलकिया! सोचिए ढोल बजाता ढोलकिया और उसके स्वरों को कोई उपन्यासकार शब्दों में पिरो कर आपके सामने रख दे …! वह कमाल सिर्फ़ और सिर्फ़ आंचलिक उपन्यास लेखन के बादशाह फणीश्वरनाथ रेणु के पास ही है।रेणु के साहित्य में सबसे महत्वपूर्ण बात है उनकी भाषा में आंचलिक बोली की लय। वह भी वाचिक अनुभाव के साथ है! बोलियों का जो नाटकीयता के साथ पेश करने का अंदाज़ है वह पाठक को उस अंचल के साथ जोड़ देता है।
“मलेटरी ने बहरा चेथरू को गिरफ्फ कर लिया है…” यह है उस उपन्यास की आरंभिक पंक्ति। यह जो ‘गिरफ्फ’ है यह कहीं और पढने को नहीं मिलेगा,और उस अंचल में सबके मुंह से सुनने को मिलेगा। इसके अलावा रेणु ने मिथक, लोकविश्वास, अंधविश्वास, किंवदंतियां, लोकगीत-संगीत इन सबको अपनी रचनाओं जगह दी। ये सभी ग्रामीण जीवन की अंतरात्मा हैं। इन सबके बिना ग्रामीण जीवन की कथा नहीं कही जा सकती।
जीवन के ताल को रेणु की भाषा के संगीत में देखने का अप्रतिम शैली, ढोल के हल्के स्वर पर संघर्ष का नर्तन, “मैला आंचल” मे चित्रांकन शैली में अंकित है। संगीत की इतनी पकड़ रेणु को थी कि जीवन के संघर्ष को भाषा में रूपायित करते थे वो। यानी गद्य में कविता का अद्भुत प्रयोग! मेरी नज़र में ऐसा कोई भाषा और संगीत की जुगलबंदी कहीं और देखने को नहीं मिलता। इस उपन्यास की समीक्षा लेकर फिर कभी आऊंगा आज तो सिर्फ़ आपको इस उपन्यास के पृष्ठ 67 और 68 पर ले चलता हूं, जहां आप देखिए रेणु की अद्भुत शैली में भाषा और संगीत की जुगलबंदी …….
गंगा जी के मेले से गंगतीरिया ढोलक लाया है। खूब गम्हड़ता है। ढोल की आवाज में कुछ ऐसी बात है कि कुश्ती लड़नेवाले नौजवानों के खून को गर्म कर देती है।
ढाक ढिन्ना, ढाक ढिन्ना!
शोभन मोची ने ढोल पर लकड़ी की पहली चोट दी कि देह कसमसाने लगता है।
ढिन्ना ढिन्ना, ढिन्ना ढिन्ना ….!
अर्थात् – आ जा,आ जा,आ जा,आ जा,!
सभी अखाड़े में आए! काछी और जंघिया चढाया, एक मुट्ठी मिट्टी लेकर सिर में लगाया और ‘अज्ज्ज्जा’ कहकर मैदान में उतर पड़े। कालीचरण ‘आ-आ-अली’ कहकर मैदान में उतरता है। चंपावती मेला में पंजाबी पहलवान मुश्ताक इसी तरह ‘अली’ (या अली) कहकर मैदान में उतरता था…..
तब शोभन ताल बदल देता है-
चटधा गिड़धा,चटधा गिड़धा !
… आ जा भिड़ जा,आ जा भिड़ जा !
अखाड़े में पहलवान पैंतरे भर रहे हैं। कोई किसी को अपना हाथ भी छूने नहीं देता है। पहली पकड़ की ताक में है। वह पकड़ा …
धागिड़ागि,धागिड़ागि,धागिड़ागि !….
कसकर पकड़ो,कसकर पकड़ो !
चटाक चटधा, चटाक चट्धा !
… उठा पटक दे, उठा पटक दे !
गिड़ गिड़ गिड़ धा,गिड़ धा गिड़ धा !
… वह वा, वह वा, वाह बहादुर !
पटक तो दिया, अब चित्त करना खेल नहीं ! मिट्टी पकड़ लिया है। सभी दाव के पेंच और काट उसको मालूम हैं!
ढाक ढिन्ना, तिरकिट ढिन्ना !
…. दाव काट, बाहर हो जा !
वाह बहादुर! दाव काटकर बाहर निकल आया। फिर, धा-चट गिड़ धा ! आ आ भिड़ जा !
ढोल के हर ताल से पैंतरे, दांव-पेंच, काट और मार की बोली निकलती है।
कालीथान में पूजा के दिन इसी ढोल की ताल एकदम बदल जाती है। आवाज भी बदल जाती है। – धागिड़ धिन्ना, धागिड़ धिन्ना !
…. जै जगदंबा ! जै जगदंबा !
गांव की रक्षा करो मां जगदंबा।
पुनश्च :
आज महानवमी को रह-रह कर यही ताल मेरे कान में पड़ रहे हैं।
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोsस्तु ते॥
महानवमी के पावन अवसर पर आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों को हार्दिक शुभकामनाएं और बधाई!
पुस्तक का नाम – मैला आंचल
लेखक – फणीश्वरनाथ रेणु
राजकमल पेपर बैक्स में
पहला संस्करण : 1984
दूसरी आवृति : 2009
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली-110 002
द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 65 रु.
लेखक – फणीश्वरनाथ रेणु
राजकमल पेपर बैक्स में
पहला संस्करण : 1984
दूसरी आवृति : 2009
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
1-बी, नेताजी सुभाष मार्ग
नई दिल्ली-110 002
द्वारा प्रकाशित
मूल्य : 65 रु.
इस दृष्टी से नहीं देखा...वाह क्या शब्द-संगीत का अर्थांकन है फिर बहुत दिन हुए, अब तो फिर फिर से पढ़ना ही होगा- मैला आंचल।
ReplyDelete..मैथली की मिठास भी खूब है।
रेणु जी के आंचलिक शब्दों के आरोह-अवरोह को महसूस किया जा सकता है.
ReplyDeleteभाषा में गेयता बनी रहे फिर चाहे गद्य ही क्यों न हो, अच्छा लगता है।
ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति....
ReplyDeleteआपको
दशहरा पर शुभकामनाएँ ..