अब उभरते ज्वार का आवेग मद्धिम हो चला है,
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है ।
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है।
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है ।
साभार : कविताकोश
– दुष्यन्त कुमार
एक हलका सा धुंधलका था कहीं, कम हो चला है,
यह शिला पिघले न पिघले, रास्ता नम हो चला है,
क्यों करूँ आकाश की मनुहार ,
अब तो पथ यही है ।
क्या भरोसा, कांच का घट है, किसी दिन फूट जाए,
एक मामूली कहानी है, अधूरी छूट जाए,
एक समझौता हुआ था रौशनी से, टूट जाए,
आज हर नक्षत्र है अनुदार,
अब तो पथ यही है।
यह लड़ाई, जो की अपने आप से मैंने लड़ी है,
यह घुटन, यह यातना, केवल किताबों में पढ़ी है,
यह पहाड़ी पाँव क्या चढ़ते, इरादों ने चढ़ी है,
कल दरीचे ही बनेंगे द्वार,
अब तो पथ यही है ।
साभार : कविताकोश
– दुष्यन्त कुमार
बहुत सुन्दर, अब यही पथ है।
ReplyDeleteबेहद उम्दा और सार्थक पोस्ट्।
ReplyDeleteवाह...
ReplyDeleteआभार अद्वितीय रचना पढवाने के लिए...
दुष्यंत कुमार की रचना पढ़ना सुखद है। पर मुझे लगता है कि इस तरह से केवल रचनाएं पढ़ने तथा पढ़वाने के लिए बहुत सारे अन्य ब्लाग हैं। इस ब्लाग का उपयोग पुस्तकों की चर्चा करने के लिए ही किया जाए तो बेहतर है। हां पुस्तकों की चर्चा में रचनाएं दी जा सकती है,उनके अंश भी दिए जा सकते हैं।
ReplyDelete-
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मैं उम्मीद करता हूं मेरी इस टिप्पणी को आक्षेप की तरह नहीं लिया जाएगा। इस ब्लाग के सभी योगदानकर्ता अगर इस बात का ध्यान रखें तो बेहतर होगा।
उत्साही जी ठीक कह रहे हैं। आक्षेप में लेनी जैसी कोई बात ही नहीं है। साइड बार में पहले से ही सब कुछ स्पष्ट लिखा हुआ है।
ReplyDeleteआगे से कृपया यह ध्यान रखें। पोस्ट समीक्षात्मक - सूचनात्मक होनी चाहिए। कॉपी - पेस्ट न करें।
nice..very nice.
ReplyDeleteफिर भी, दुष्यंत कुमार जी की रचनाएँ जहाँ और जैसे भी पढने को सदा ही मन को जागृत व उद्वेलित करती हैं। इतनी सुन्दर कविता की प्रस्तुति हेतु हार्दिक साधुवाद।
ReplyDeletebahut hi rochak post hai.........
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