यह आपबीती है एक भारतीय जासूस मोहन लाल भास्कर की । जिन्होंने 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद मुहम्मद असलम बनकर (इसके लिए इन्होंने सुन्नत करवा ली थी) पाकिस्तान में प्रवेश किया। भारत में इनके पीछे इनके वृद्ध माता-पिता और साल भर की ब्याहता पत्नी रह गई थीं, जो तीन महीने की गर्भवती थीं।
पुस्तक अत्यंत रोचक है। इस अंदाज में लिखी गई है कि उबाती नहीं है। पुस्तक जासूसी उपन्यास का मजा देती है, लेकिन घटनाऍं कहीं भी नकली नहीं लगतीं। सच्ची कहानी पर आधारित होने के कारण रोमांच और बढ जाता है। मैंने शीर्षक देखकर इस पुस्तक को उठाया कि जासूसों की जिंदगी के बारे में कुछ जानने को मिलेगा।
लेकिन यह पुस्तक तात्कालीन सत्तर -अस्सी के दशक में भारत पाकिस्तान संबंधों, खासकर पाकिस्तान की सामाजिक राजनैतिक स्थिति का एक बेहद जमीनी दृश्य प्रस्तुत करती है। साथ ही पाकिस्तानी जेलों में उस समय बंद कैदियों के जीवन को भी विस्तार से दिखाती है। पढने से लगता है कि किताब अनुभव से गुजर कर लिखी गई है।
पुस्तक अक्षर प्रकाशन से प्रकाशित है। इसके दूसरे पेज पर मानवीय साहस, लगन और रोमांच की अक्षर प्रकाशन द्वारा प्रकाशित तीन पुस्तकों का जिक्र है। अन्य दो पुस्तके हैं - आदमी-दर-आदमी - सतीश कुमार (बिना पैसे दुनिया का पैदल सफर) और पहाडों से ऊंचा जो तेनजिंग की एवरेस्ट विजय की सबसे प्रामाणिक पुस्तक है, इसके लेखक राजेन्द्र सिंह भण्डारी हैं।
पहले पृष्ठ पर पुस्तक से संबंधित निम्नलिखित बिंदु ध्यान आकर्षित करते हैं।
* पाकिस्तान में वह गुप्त रूप से कहॉं-कहॉं गया, उसने क्या-क्या देखा और क्या-क्या कार्य किया।
* एक अन्य भारतीय जासूस ने ही धन के लालच में गद्दारी करके उसे कैसे गिरफ्तार कराया।
* पाकिस्तान की सेना और पुलिस द्वारा जबान खालने के लिए उसे कैसी कैसी यंत्रणाऍं दी गईं।
* फिर साढे छ: साल तक विभिन्न जेलों में दुर्दांत अत्याचार और नफरत सहते हुए कैसे-कैसे अधिकारियों और कैदियों से उसकी मुलाकात हुई।
* अंतत: शिमला समझौते के अंतर्गत भारत लौटने पर उसे क्या मिला।
एक जासूस की रहस्य रोमांचक आत्मकथा, जो पाकिस्तान की तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक जिन्दगी की पडताल भी करती है।
यह जासूस पाकिस्तान मे फौजी हूकूमत, याह्या खॉं फिर उसके बाद जुल्फिकार अली भुट्टो के प्रधानमंत्री बनने, भारत पाकिस्तान की 1971 की जंग और बांग्लादेश की स्वतंत्रता के घटनाक्रम का जेल में कैद एक ऐसा भारतीय था जो पाकिस्तान से इन सब घटनाओं को अपनी गुप्तचर ऑखों से देख परख रहा था। इसमें लेखक का अपना दृष्टिकोण विस्तार से लिखा हुआ है। पाकिस्तान में याह्या खां के समय के मार्शल लॉ की कई अजीबो गरीब कहानियों का जिक्र है कि किस तरह मनमाने फैसेले करके जनता पर जुल्म ढाए जाते थे।
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मैं किताब के अंश के तौर पर इसके अंतिम दो पेज का जिक्र करना चाहूँगा जिसमें मोहन लाल भास्कर ने तात्कालीन सरकार और उसके प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई द्वारा की गई उनकी उपेक्षा की व्यथा को व्यक्त किया है।
लिखते हैं -
"भारतीय संविधान के मौलिक अधिकारों में भष्टाचार के खिलाफ बोलने का अधिकार 'राइट अंगेंस्ट एक्सप्लाइटेशन' हरेक नागरिक को है। आज उसी का सहारा लेकर कहता हूँ कि देशभक्ति के नाम का सहारा लेकर इस देश में सैकडों नौजवानों की जिन्दगियों से खिलवाड किया जाता है। कुछ लोग तो बेकारी का शिकार होकर इस धन्धे में फँसते हैं, लेकिन उन्हें मिलता कुछ नहीं है। बस बार्डर क्रास करते हुए दुश्मन की गोली, दुश्मन की जेलें, अनगिनत पीडाऍं और अत्याचार। यह सोचकर अकल हैरान हो जाती है कि भारत के तत्कालीन पाखण्डी मूत्रपान करने वाले प्रधानमंत्री मोरारजीदेसाई के पास स्मगलरों के बादशाह देश से करोडों की हेराफेरी करके भाग जाने वाले हाजी मस्तान, बखिया को, धर्म सिंह तेजा आदि को घर पर बुलाकर तीन-तीन दिन तक उनक मेहमानवाजी करने और उनकी समस्या सुलझाने का समय तो था, मगर वे लोग जिन्होंने इस देश के लिए जान की बाजी लगाकर दुश्मन की फॉंसी की कोठरियों में दिन बिताए, अमानवीय व्यवहार और अत्याचार सहे, उनकी समस्या सुलझाने के लिए उनके पास सहानुभूति के दो शब्द भी नहीं थे।
हमारी कहानी पढकर फिर कोई देश के लिए मर-मिटने की कसम खाएगा ? ..............फिर भी हम आभारी हैं इस देश के जो हमें दुश्मनों की कैद से वापस ले आया है जिसने हमें एक बार फिर नया जन्म दिया है:
'जान दी, दी हुई उसी की थी,
हक तो यह है कि हक अदा न हुआ।'
सच बात तो यह है कि हमने इस देश पर कुछ अहसान नहीं किया, अपना फर्ज अदा किया। दुख तब होता है जब देशभक्ति का स्वांग बना कर कुछ लोग हमारे सामने कारों और हवाई जहाजों में आते और हमारे तथा जनता के सिर पर धूल उडाते हुए भाषण झाडकर चले जाते हैं। उंगली को खून लगाकर अपने-आपको शहीद कहने वाले लोग भारत या भारतीय जनता की ऑंखों में धूल कब तक झोंकते रहेंगे, इस बात का फैसला खुद जनता को करना है।
यदि मैंने भावावेश में किसी के लिए कटु शब्द का प्रयोग कर दिया तो मोरारजी देसाई को छोडकर, सबके प्रति क्षमा-प्रार्थी हूँ। धन्यवाद ! "
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पुस्तक का नाम : मैं पाकिस्तान में भारत का जासूस था
लेखक : मोहन लाल भास्कर (कॉपीराइट भी इन्हीं का है )
प्रकाशक : अक्षर प्रकाश्ान, प्रा. लि.
2/36, अंसारी रोड,
दरियागंज, नयी दिल्ली - 110002
पृष्ठ : 228
प्रथम संस्करण : 1983
दूसरा संस्करण : 1986
पठनीय पुस्तक।
ReplyDeleteपढने को प्रेरित करतीहै पुस्तक्।
ReplyDeletejarur paduga
ReplyDeleteमैं तो हर भारतीय से इसे पढ़ने का आग्रह करूंगा.
ReplyDeleteAbhi order ki hai. Ise sanjha karne ke liye Dhanyavaad!
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