पर्यावरण दिवस पर डॉ.वेद व्यथित का कविता संग्रह ‘अन्तर्मन’ पलटते हुए उनकी दो कविताओं पर फिर से नजर अटक गई।
पहली है ‘समीर’
जल के छूने भर से
शीतल हो जाती है हवा
शान्त हो जाता है उसका मतस्ताप
तब सुन्दर समीर
बन जाती है वह
फुहार बनकर
लुटा देती है अपना सर्वस्व
और समाप्त कर देती है
अपना अंह
जल के छूने लेने भर से
कितनी भोली है वह
कितनी सह्दया है
और कितनी समर्पिता है
वह भोली सी हवा
प्यारी सी हवा।
हवा और पानी का यह रिश्ता प्रकृति में हमेशा से ही रहा है। दोनों जब शांत होते हैं तो जीवन रचते हैं। लेकिन जब क्रोधित होते हैं तो जीवन को तहस-नहस कर देते हैं। लेकिन उनकी इन दोनों प्रतिक्रियाओं में मानव मात्र की गतिविधियों का भी बड़ा योगदान है।
दूसरी कविता है ‘उपयुक्त’
चिडि़या को पता है कि
कौन सा तिनका
उपयुक्त है उसके घोंसले के लिए
वह उठाती है अपनी चोंच से
उसी तिनके को
क्योंकि इसी पर टिकी है
उसकी भावी गृहस्थी
और उसके अंडजों का भविष्य
वह खूब समझती है
अपने समाज की मर्यादा।
उसकी नैतिकता तथा
और भी बहुत से तौर तरीके
इसमें शामिल नहीं करती है वह
(ऐसी) आधुनिकता या खुलापन
जो विकास के बहाने देता है
अनैतिक होते रहने की छूट
इसलिए वह नहीं उठाती है
ऐसा एक भी तिनका जो उसके घोंसले को तबाह (न) कर दे
आग की चिंगारी की भांति
क्योंकि वह जानती है अच्छी तरह
अपने घोंसले के लिए
उपयुक्त तिनका।
इस कविता में ऊपर कोष्टक में जो 'ऐसी' शब्द आया है, वह मैंने जोड़ा है। मेरे विचार से हर विकास या आधुनिक विचार बुरा नहीं होता है। नीचे एक और जगह कोष्टक में 'न' आया है। यहां यह मूल कविता में है, पर संपादकीय नजर से देखें तो इस शब्द को यहां नहीं होना चाहिए। क्योंकि इससे अर्थ का अनर्थ हो रहा है।
यह कविता कवि ने बहुत सीमित उद्देश्य से लिखी है। पर आज हम अगर पर्यावरण के संदर्भ में इसे देखें तो इसमें छिपे गहर निहितार्थ नजर आते हैं। विकास और आधुनिकता के नाम पर हम अपने आशियाने बनाने के लिए जिस तरह के तिनके चुन रहे हैं, उनके संदर्भ में पर्यावरण का ध्यान रख रहे हैं या नहीं। चाहे वे बड़े बांध हों, नाभिकीय बिजली घर हों, कल कारखाने हों या फिर लगातार आसमान छूते कंक्रीट के जंगल। काश कि हम भी ‘चिडि़या’ की तरह सोच पाते।
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वेद जी के इस संग्रह में 80 से अधिक कविताएं हैं। संग्रह का मूल स्वर स्त्री के इर्द-गिर्द घूमता है। वे स्त्री के बहाने प्रकृति की बात भी करते हैं,उससे तुलना करते हैं। कहीं वे स्त्री को प्रकृति के समकक्ष रखते हैं तो कहीं प्रकृति को स्त्री के रूप में देखते हैं। ऐसा करते हुए वे दोनों के ही बहुत सारे पहलू नए नए अर्थों में सामने लाते हैं। उनके इस संग्रह पर मैंने एक विस्तृत समीक्षा अपने ब्लाग गुल्लक पर पिछले दिनों प्रकाशित की थी। संग्रह की कुछ और कविताएं तथा उन पर चर्चा पढ़ने के लिए इस लिंक पर जाएं-
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105 पेजों में फैले हार्डबाउंड कविता संग्रह की छपाई तथा कागज आदि संतोष जनक है। इसे दिल्ली के बाल-सुलभ प्रकाशन,डी-1/8,पूर्वी गोकलपुर,लोनी रोड दिल्ली 110094 ने प्रकाशित किया है। सम्पर्क के लिए प्रकाशक का मोबाइल नं है 9818628554 । कीमत है रुपए 150.00 ।
0 राजेश उत्साही
आभार राजेश जी ..!!
ReplyDeleteइतनी सुंदर कवितायेँ पढवाने के लिए ..!!
Ved Vyathit ji ko badhai ..inhe likhane ke liye ..!!
http://anupamassukrity.blogspot.com/
जल के छूने भर से
ReplyDeleteशीतल हो जाती है हवा
शान्त हो जाता है उसका मतस्ताप
तब सुन्दर समीर
बन जाती है वह
फुहार बनकर
लुटा देती है अपना सर्वस्व
और समाप्त कर देती है
अपना अंह
जल के छूने लेने भर से
कितनी भोली है वह
कितनी सह्दया है
और कितनी समर्पिता है
वह भोली सी हवा
प्यारी सी हवा।
bahut sunder rachna ...bahut accha laga
dum nahi ha plz munshi ji ke bare mai huch pesh kijiye na
ReplyDeleteइन कविताओं में भी स्त्री-विमर्श साफ झलकता है। आपने पर्यावरण का संदर्भ देकर व्यापक अर्थ दिया।
ReplyDeleteअच्छी कविताएं हैं। बहुत सुंदर
ReplyDeleteइन कविताओं का तो जवाब नहीं !
ReplyDeletehttp://sanjaybhaskar.blogspot.com/
इतनी सुंदर कविताएँ पढवाने का आभार ।
ReplyDeleteBAHUT ACCHA
ReplyDeleteअच्छी कविता है, सब कुछ स्पष्ट भी है, कोष्ठक में जो श्बद जोड़े गये हैं उनकी आवश्यकता नहीं है। कवि की मूल कविता पूर्ण कविता है।
ReplyDeleteशुक्रिया व्योम जी,
ReplyDeleteकोष्ठक में दोनों जो शब्द दिए गए हैं, उनमें से एक जगह उसे जोड़ा गया है और दूसरी जगह उसे हटाने की बात कही जा रही है। और रही बात आवश्यकता की तो ये मेरा मत है। और मैंने वहां उसके लिए तर्क भी दिए हैं।
निसंदेह कविता तो व्यथित जी की ही है। अगर उन्हें मेरा तर्क ठीक लगेगा तो वे स्वीकार करेंगे।
आदरणीय बन्धुवर राजेश जी यह मेरा सौभाग्य है कि आप का स्नेह मुझे निरंतर मिल रहा है मैं अपने इस सौभग्य को धन्यवाद जैसे शब्द से छोटा नही करना चाहता हूँ हमारे यहाँ अपने अग्रजों को धन्यवाद कहने जैसी प्रथा नही है मैं हृदय की गहराइयों में आप के स्नेह को अनुभव कर रहा हूँ इसे बनाये रहे |
ReplyDeleteनिश्चित ही आप द्वारा मार्ग दर्शन करना मेरे लिए हित कर है मैंने तो बस रचना कर दी शेष उस का अर्थ क्या है या वह अनर्गल है यह तो पाठक का पूर्ण अधिकार है कि वह उसे किस दृष्टि से देखता है इस में मुझे कोई आपत्ति नही है|
आप के सम्पर्क से मुझे आप के मित्रों ने भी सौभग्य वश आशीष दिया है मैं उन सभी के प्रति भी हृदय से आभारी हूँ मेरी सभी आदरणीय मित्रों से प्रार्थना हैं जिन्होंने मेरी इन रचनाओं पर कृपा दृष्टि डाली है और मुझे टिप्पणी के रूम में आशीष दिया है कृपया मेरा हार्दिक आभार स्वीकार कर लें व स्नेह बनाये रहिये |
सशक्त और सार्थक रचना
ReplyDeleteek chidiya , ek tinka our usme rmta hua apnapan jisse ho kr srijan bne ek pyara sa nij sadan
ReplyDelete.
kitna jroori hota hai ek aashiya bnate smy hr cheej ki th tk jana jisse us aashiya ki grima dhoomil n ho our usme pnpne ki sarthkta bsti rhe .ved vythit ji ki bhut hi khoobsoorrt soch se vakif krwane ke liye rajesh ji aapka bhut bhut shukriya .
सुन्दर रचनाएं ....
ReplyDeleteसार्थक विश्लेषण,.....
आपकी लेखनी कमाल की है बस इतना ही कहूँगा वाह कल्पनाओं आसमा कितना विशाल विस्तृत है वो यहीं आकार मालूम हुआ....
ReplyDeleteकई जिस्म और एक आह!!!
Badi achhi lagin donon kavitayen
ReplyDeleteआनंद आ गया पढकर। धन्यवाद।
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