Tuesday, April 12, 2011

औरत का कोई देश नहीं

AKKDNयह शीर्षक है तस्लीमा नसरीन की चर्चित किताब का ! अभिनन्दन का उद्योग-पर्व के बाद अपनी अस्वस्थता के चलते पुस्तकायन पर मेरा योगदान नहीं सँभव हुआ, इसी सँदर्भ में यह जिक्र कर देना प्रासँगिक रहेगा कि, यहाँ पर हम अपनी पढ़ी हुई किताबों की चर्चा करते हैं, उसके गुण-दोष की विवेचना इस आशय से करते हैं कि ऎसा पुस्तक परिचय हम अपने बँधुओं से साझा कर सकें.. न  कि उस तरह जैसा आशीष अनचिन्हार जी ने हमसे अपेक्षा की है ! आज जिक्र है मुक्त चिन्तन की नायिका तसलीमा नसरीन के लेख सँग्रह औरत का कोई देश नहीं का ,  मूल बाँग्ला से सुशील गुप्ता द्वारा अनुदित यह सँग्रह वाणी प्रकाशन द्वारा हमारे सम्मुख प्रस्तुत किया गया है । लेखिका के अनुसार यह विभिन्न अख़बारों में उनके द्वारा लिखे गये कॉलमों के सँग्रह की पाँचवीं कड़ी है !
इसकी भूमिका में मोहतरमा यह कहती पायी जाती हैं कि देश का अर्थ यदि सुरक्षा है, देश का अर्थ यदि आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता । धरती पर कोई औरत आज़ाद नहीं है, धरती   पर कहीं कोई औरत सुरक्षित नहीं है । बकौल स्वयँ उनके जो तस्वीर नज़र आती है, वह आधी अधूरी है, इसलिये ( फिलहाल ) उन्होंने अँधेरे को थाम लिया है ।
उनकी सोच सही दिशा में हो सकती थी, यदि वह उन कारणों की पड़ताल को आगे बढ़ातीं, जिसे उन्हें रेखाँकित किया है..

सन उन्नीस सौ सत्रह से लेकर उन्नीस सौ चालीस तक, भारत में नारी के मताधिकार को ले कर यूरोप, अमेरिका के आन्दोलन जैसा न सही, मीठी-मृदुल आवाज में तर्क-वितर्क जारी रहा। मताधिकार, किसी भी नागरिक का राजनैतिक अधिकार होता है, फिर भी उसके इस अधिकार को भारतीय हिन्दू-मुसलमान दोनों धर्मों के सम्प्रदायवादी नेताओं ने नामंजूर कर दिया, नारी को अगर मताधिकार मिल गया तो गृहस्थी रसातल में चली जायेगी, पर्दा-प्रथा को नुकसान पहुंचेगा। समूचे हिन्दुस्तान में कितनी चीख-पुकार मचेगी। उन लोगों का कहना था नारीत्व और नागरिकता-इन दोनों का मिलन किसी ‘शर्त पर भी सम्भव नहीं है।
नारी के लिए संरक्षित सीट या सार्वजनीन मताधिकार-दोनों में से कौन-सा चाहिए ? नारी वर्ग का एक दल एक पक्ष में, दूसरा विपक्ष में। सन तीस के दशक की ‘शुरुआत में यही होता रहा। लम्बे अर्से तक राजनीतिज्ञों में तर्क-वितर्क चलता रहा। इस बीच सन 1932 की सितम्बर में अचानक एक दिन पूना पैक्ट में कांग्रेस के चन्द नेताओं और साथ में गांधी जी ने सहमति प्रदान की। वे लोग हिन्दू इलाकों में नारी के लिए आसन संरक्षित कर आये। उन लोगों ने समझौता कर लिया। मताधिकार के लिए विभिन्न धर्मावलम्बी नारियों ने एकजुट हो कर जो आन्दोलन छेड़ा था, बेहद ठण्डे दिमाग से उस आन्दोलन की आवाज अवरूद्ध कर दी। (पेज नं. 14)
भारत को आजादी मिल गयी देश का बंटवारा हो गया और धर्म-वर्ण निर्विशेष कन्धे से कन्धा मिला कर, खड़ी हुई नारी भी बंट गयी। अब नारी का परिचय नारी होना नहीं रहा। अब वे बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक बन गयीं। अब वे लोग धर्म-आधारित सम्प्रदाय को टिकाये रखने की मशीन बन गयी। अस्तु, नारी स्वाधीनता का जो आन्दोलन भारत में ‘शुरु हो सकता था, उसकी करूण मृत्यु हो गयी। (पेज नं. 15)
पुरुषों को घेरे में लेने के लिये.. या सौन्दर्यबोध के मापदण्डों को उघेड़ने के प्रयास में तसलीमा स्वयँ ही कन्फ़्यूजियायी सी दिखती हैं.. आखिर उनके इस अवलोकन पाठक किस दृष्टि से आत्मसात करे, जिसे सारा जग नारी की सजने-सँवरने की सहज प्रवृत्ति के तौर पर देखता आया है
ऐंटी एजिंग, एक्सफॅलिएटर्स, आइ ब्राउज, आइ लाइनर्स, आइ ‘शैडो, बेस मेकअप, ब्लश, कन्सीलर, एल्युमिनेटर्स, लिप ग्लांस, लिप लाइनर्स, लिपस्टिक, नेलपॉलिश-इस किस्म की हजारों सामग्रियां आज बाजार में क्यों है? किनके इस्तेमाल के लिए? इसका जवाब हम सभी जानते हैं । औरतों के लिए? मेरा सवाल है औरतों को ये सब प्रसाधन क्यों इस्तेमाल करने होते होंगे ? औरतों को चेहरे पर ये सैकड़ों रंग-रोगन पोत कर अपना असली चेहरा छिपाने की क्या जरूरत है ? एक नकली चेहरा क्यों गढ़ना हो ? नकली आंखें, नकली होंठ, नकली गाल ? ये तमाम प्रसाधन सामग्रियां औरतें इस्तेमाल करती हैं क्योंकि अपने असली चेहरे के बारे में वे कुंठा की शिकार है । उन लोगों में यह हीन भावना, यह कुंठा आखिर किसने जगाई ? किसने बताया कि हर औरत के चेहरे में कोई न कोई दोष, कोई त्रुटि है इसलिए सैकड़ों तरह के मेकअप लगा कर उस चेहरे को त्रुटियुक्त करना होगा? अगर उन लोगो ने अपना-अपना चेहरा त्रुटियुक्त कर लिया तो उन्हें खूबसूरत सुन्दरी कहा जायेगा।
औरतें तटस्थ रहती है। ये लोग खाना बन्द कर देती हैं क्योंकि खाने से देह मुटिया जायेगी। देह के किसी भी अंग पर मोटापा न जमने दिया जाये। छाती का माप इतना हो, कमर इतनी, पेट इतना, नितम्ब ऐसा, जांघें ऐसी-अंग-अंग का माप निर्धारित कर दिया गया। अपने को उस माप के अनुकूल बनाने के लिए वे लोग पगला उठी है कि खाना देखते ही डर जाती है। खाना न खा-खा कर, बहुत सी औरते आज एनोरिक्सिया और बुलिमिया रोग झेल रही है। औरतों के शरीर का आकार-आकृति और अंग-प्रत्यंग का क्या माप होना चाहिए, यह नियम किसने तैयार किया ? कौन लोग है जो औरतों की माप-जोख के अंकों से कर रहे हैं ? कौन लोग है, जो कह रहे हैं कि औरत के शरीर को किसी माप के सांचें में न डाला तो वह शरीर हरगिज सुन्दर नहीं हो सकता। कौन लोग कहते है कि वह औरत सुन्दर नहीं है ।
(पेज नं. 26)
हद तो यह है कि इसी लेख में औरत को उपभोग की वस्तु सिद्ध करने के प्रयास में वह स्त्री-पुरुष के नैसर्गिक सँबन्धों को भावनात्मक दोहन की सँज्ञा देती हुई दिखती हैं, यह दिवालियापन एकाँगी ही कहा जा सकता है ।
सच तो यह है कि पुरूषतान्त्रिक समाज में औरत महज सामग्री है। मर्दों के भोग की सामग्री। अब यह बात कोई माने या न माने, यही सच है। ठीक जैसा रूप देख कर, पुरूषों में उत्तेजना जागती है, नारी नमक वस्तु को वैसी ही बनना पड़ता है, जैसी दिखने से, पुरूष के तन-मन को चैन और आराम मिले। जन्म से लेकर मृत्यु तक औरत को जितना सजना-धजना पड़ता है, जो-जो काम करने पड़ते है, वह सब पुरूष और पुरूषतान्त्रिक समाज की स्वार्थ-रक्षा के लिए! औरत का सतीत्व, मातृत्व, उसका नत और नम्र चरित्र-रक्षा, सब कुछ पुरूष के स्वार्थ के लिए ताकि पुरूष औरत को अपनी अधिकृत सम्पत्ति और क्रीतदासी के तौर पर उससे खूबसूरत बर्ताव कर सके । औरत को अपनी कांख तले दबोचने के सैकड़ों तरीके प्रचलित है । सबसे आधुनिक तरीके का नाम है-प्यार ! प्यार, औरत को, यहां तक कि ताकतवर औरतों को भी इस कदर कमजोर बना देता है, इस हद तक पिघला देता है, कि उसके पुरूष द्वारा खाये-चबाये, चूसने-चाटने की सामग्री बन जाने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा रहता । घर गृहस्थी के मंच पर बीबी की भूमिका निभाने से पहले प्रेमिका बनने का दौर चलता है। इस दौर में औरत अगर अपने प्रेमी-पुरूष के प्रति त्याग और तितिक्षा के मामले में दक्षता का परिचय दे सके, तो वह पार हो जाती है। (पेज नं. 27)
इतिहास खँगालने की कोशिश में इन्हीं मुद्दों को वह  गड्ड-मड्ड तरीके से अपने देश सोनार-बाँग्ला की ओर ले जाती हैं.. और उनका निष्कर्ष भी बड़े अटपटे ढँग का है ।

औरत को डसने के लिए कटटरवाद मानो फल उठाये फुफकारता रहता है । जहरीले सांपों से छायी हुई, मेरी जन्मभूमि-बांग्लादेश, औरतो के लिए आशंकित मैं, बिल्कुल वाक्-रूद्ध हूं । कहते हैं जब पीठ दीवार से टकराने लगेगी, तब कटटरवाद-विरोधी शक्ति विरोध करेगी। लेकिन, पुरूष...ये मर्द क्या विरोध करेंगे ? मर्द  क्या सच ही इसके विरूद्ध आवाज उठायेंगे? धर्म की विविध सुविधाएं तो आरामपूर्वक मर्द जी रहे है । औरत की गर्दन  पर सवार हो  कर, औरत  को कदमों तल रौंदकर,  दल बद्ध तरीके से कुचलकर,  जितने  भी  तरीके से ऐशो आराम किया जा सकता है,  मर्द नामक प्रभु वह सब करता है। धर्म या कटटरवाद की वजह से मर्द को कभी भी कोई दुर्योग नहीं झेलना पड़ता, न पड़ेगा । झेलने को लाचार तो सिर्फ और है दीवाल से अगर किसी की पीठ टकराती है, तो वह औरत की ही पीठ होती है। (पेज नं. 109)
हालाँकि उसकी पीठ तो वर्षों वर्षों पहले ही दीवार से टकरा जानी चाहिये थी, क्यों नही टकराई या अब भी क्यों नहीं टकरा रही है, यह  एक रहस्य है  या यह भी हो सकता है कि पीठ टकरायी है, लेकिन औरतों को इस कदर अनुभूतिहीन रखा गया है कि  आज भी , उन लोगों को कहीं चोट लगे भी, तो वे लोग महसूस नहीं कर पातीं ! औरतों का  दिमाग इतना भोथरा बना दिया गया है कि.... ( इसी पृष्ठ से )
किन्तु उनका पलटवार नारियों पर भी है, साथ में कतिपय नारीवादी पुरुषों के लिये सराहना भी है, यह कैसा विरोधाभास ? मेरी समझ से जब कोई लेखक या विचारक बुक-स्टैन्ड वैल्यू को ध्यान में रख कर लिखता है, तो उसका अगोचर पाखँड दिख ही जाता है । जो भी हो...
पुरूष भले है, पुरूषतन्त्र बुरा ! यही है सीधी बात, साफ बात और सबकी बात ! यह सुनने में बड़ा अच्छा लगता है। लेकिन सभी लोगों से और खुद अपने से ही मेरा सवाल है- पुरूषतन्त्र क्या आसमान से गिरा है ? पुरूषतन्त्र एक तन्त्र है जहां नियम-कानून पुरूष के पक्ष में है, सामाजिक और पारिवारिक विधि-व्यवस्था पुरूष के पक्ष में है, इस समाज संसार में जो कुछ भी है, सभी कुछ पुरूष के अपने पक्ष में है । सब कुछ पुरूष केन्द्रित है । नहीं, यह तन्त्र आसमान से नहीं टपका । इसे पुरूष ने रचा-गढ़ा है और पुरूष वर्ग ही यह सारी सुविधा भोग रहा है । औरत की प्रमुख भूमिका है, पुरूष वर्ग को यह सुख भोगने में मदद करना । मैं पुरूषतन्त्र की समालोचना करती रही हूं, पुरूषतन्त्र की आलोचक हूं मैं, लेकिन मुझे यह दावा करने का कोई हक नहीं कि पुरूष ही पुरूषतन्त्र का जनक है । अगर मै बोलने पर आउं तो सच बात तो मुझे कहनी ही पड़ेगी कि हम जब सभ्यता की बडाई में पंचमुख है, उन्नत तकनीक और सैकड़ों उद्योग, संस्कृति, दर्शन, विज्ञान की सफलता के साथ-साथ महासमारोह के साथ, एक असभ्य, बर्बर प्रथा भी जिन्दा है जिसका नाम है-पुरूषतन्त्र । इसे किसने टिकाये रखा है ? हवा ने ? नहीं हवा ने नहीं, सच कहूं तो पुरूष ने ! वैसे औरत ने भी ! औरत होने भर से कोई नारीवादी नहीं हो जाती । मैंने ऐसे बहुतेरे पुरूषों को देखा है जो बहुतेरी नारीवादियों से कहीं ज्यादा नारीवादी है । मैंने ऐसी ढ़ेरों औरतों केा भी देखा है जो प्रचण्ड रूप ऎसे पुरूषतन्त्र की धारक और वाहक है । (पेज नं. 191)
इसके साथ ही वह पुरुषपरक  औरतों के किरदार को आगे बढ़ाते हुये इसकी तफ़्सील में जाती हैं.. पर यह स्पष्ट नहीं कर पाती कि उन्हें ऎसा करने के लिये कौन बाध्य करता है, क्या पुरुषों का श्रोता होना भी जुर्म है ?
एक औरत जब दूसरी औरत के खिलाफ कुछ कहती है तो पुरूष खुश होते हैं। वह औरत उन्हें बेहद विलक्षण और बुद्धिमती लगती है। किसी लड़की या औरत के छोटे-छोटे कपड़े, उसके ब्वायफ्रेंड, उसकी पुरूषबाजी वगैरह के बारे में जब कोई औरत निन्दा करती है, तो पुरूषों को बेहद मजा आता है क्योंकि ये सब बातें उनके मनमाफिक होती है।
औरत की जुबान से सुनकर उनका खासा मनोरंजन होता है। इस किस्म की औरतें उन्हीं पुरूषों की मानसिकता के साथ बड़ी होती है, उन्हीं लोगों की प्रतिरूप् बन जाती है, लेकिन वे महिला प्रतिरूप होती है। चुंकि औरत ही औरत की निन्दा करती है, इसलिए मजा भी ज्यादा आता है। कोई अन्य पुरूष जब औरतों की निन्दा करता है तब उनकी खुशी नहीं होती। औरत की जुबानी सुनकर जो मजा आता है, वह काफी कुछ सेक्स आनन्द जैसा होता है।
(पेज नं. 206)
पुस्तक पर मँथन के चलते अनायास यह पोस्ट लम्बी और बोझिल हो रही है । कुल मिला कर मेरा निज का निष्कर्ष यह कि तसलीमा Saleable Writing     [बिकाऊ लेखन सुनने में भद्दा लगता है ] परोसने में सिद्ध हस्त हैं । औरतों की दुर्दशा के सत्य से कोई इँकार नहीं कर सकता, पर उसे इस कदर सार्वभौमिक बना कर पेश करना एक भ्रामक स्थिति उत्पन्न करती है ।
वाणी प्रकाशन का यह ऋँखला प्रकाशित करने का निर्णय स्वागत योग्य है, पर हिन्दी का आम पाठक रु. 175 खर्च करके इसे पढ़ेगा इसमें सँदेह है । अलबत्ता लाइब्रेरियों एवँ शोधार्थियों के लिये यह एक अनिवार्य सँग्रह है, आप अपने बुकसेल्फ़ में सजाने के लिये भी इसे अपने पास रख सकते हैं !

13 comments:

  1. वैसे पुरुष कौन सा आज़ाद है... उसे कहे न कहे है तो जोरू का ही गुलाम:) समीक्षा का अंत बहुत प्रेक्टिकल और सही है॥

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  2. अधिक धन से अच्छे राज्य को प्राथमिकता मिलनी चाहिये।

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  3. आपने यह पोस्‍ट बहुत ही सुंदर तरीके से पुस्‍तक अंश बॉक्‍स में रखकर अलग रंग का बैकग्राउंड देकर लिखी है। प्रस्‍तुति बहुत अच्‍छी लग रही है।

    पुस्‍तक के साथ आपकी तस्‍वीर भी अत्‍यंत जीवंत आई है।अध्‍ययनरत। इस ढंग से कि पुस्‍तक का कवर पेज बिल्‍कुल स्‍पष्‍ट दिख रहा है।

    ऊपर उद्धृत अंशों को यदि देखा जाए तो विषय के कुछ लेखकीय आलंकारिकता के बावजूद व्‍यापक स्‍तर पर तस्‍लीमा जी की बात सही ही लगती है।

    आज भी समाज के बडे हिस्‍से में औरतों की स्थिति बहुत नहीं बदली है। तस्‍लीमा नसरीन के सवाल और शंकाऍं सही प्रतीत होते हैं जब लगभग रोज ही देश के विभिन्‍न भागों से औरतों के साथ हो रहे अत्‍याचारों की खबरें सुनते हैं। कहीं कहीं लेखिका स्‍त्री पुरुष संबंधों के प्रति पूर्वाग्रहग्रस्‍त लगती हैं, लेकिन गहराई से विचार किया जाए तो सब के लिए नहीं लेकिन ज्‍यादातर के परिपेक्ष्‍य में वह सही लगती है। लेखिका विषय को कई संदर्भों में देखने की कोशिश करती हैं, इसलिए उनके लेखन में विसंगतियां दिख सकती हैं।

    खुद तस्‍लीमा के साथ जो हुआ,उनके अपने देश में, फिर भारत में,दुनिया के सबसे बडे लोकंतंत्र में, एक कम्‍युनिस्‍ट पार्टी शासित राज्‍य उन्‍हें न रख सका, शायद सच बोलने की यही सजा होती है। ऐसे में लेखिका इसके अलावा और क्‍या कह सकती है कि

    "देश का अर्थ यदि आज़ादी है तो निश्चित रूप से औरत का कोई देश नहीं होता। धरती पर कोई औरत आज़ाद नहीं है, धरती पर कहीं कोई औरत सुरक्षित नहीं है। बकौल स्वयँ उनके जो तस्वीर नज़र आती है, वह आधी अधूरी है, इसलिये ( फिलहाल ) उन्होंने अँधेरे को थाम लिया है।"

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  4. bahut hi upyogi jaankaari bharaa
    aalekh hai

    abhivadan .

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  5. तसलीमा का एक कथन बिलकुल ठीक है ....

    औरत को अपनी कांख तले दबोचने के सैकड़ों तरीके प्रचलित है । सबसे आधुनिक तरीके का नाम है-प्यार ! प्यार, औरत को, यहां तक कि ताकतवर औरतों को भी इस कदर कमजोर बना देता है, इस हद तक पिघला देता है, कि उसके पुरूष द्वारा खाये-चबाये, चूसने-चाटने की सामग्री बन जाने के अलावा और कोई उपाय नहीं बचा रहता ।

    पुरुष को तटस्थ औरत चाहिए ........समझदार औरत उसे डराती है

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  6. "सुगना फाऊंडेशन जोधपुर" "हिंदी ब्लॉगर्स फ़ोरम" "ब्लॉग की ख़बरें" और"आज का आगरा" ब्लॉग की तरफ से सभी मित्रो और पाठको को " "भगवान महावीर जयन्ति"" की बहुत बहुत शुभकामनाये !

    सवाई सिंह राजपुरोहित

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  7. Taslimajee ati naarivadi lekhika hai..naaripan ko bechana aata hai..yhan bahut sari asmantaye hai..sabon ko aapsi samjhdari banakar hi santukan karna hota hai...kuchh mansikatayen barbar hoti hai...jiska khamiyaja sabon ko bhugatna parta hai. achchhi lagi samiksha.aabhar

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  8. Nice review. How many blogs do you own ? Thanks for giving me the link.

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  9. मुझे कई बार लगता है कि पुरूष कितना शोषित है इस पर भी लिखा जाना चाहिए। महिला के शोषण की इंतिहा हो गयी है। मुझे तो यह सोचकर भी गुस्‍सा आता है कि कोई मुझे कहे कि तुम शोषित हो। मुझे भगवान ने वो सब कुछ दिया है जिससे मैं स्‍वयं का निर्माण कर सकूं तो किसका सामर्थ्‍य है जो मुझे शोषण का शिकार बनाए। पुरुष को तो देखना हो तो उसे माँ की नजर से देखों, सारे ऐब छिप जाएंगे। इस दुनिया में किसके साथ शोषण नहीं है? क्‍या अकेली महिला ही है जिसे पुरुष शोषण का शिकार होना पडता है? क्‍या पुरुष को महिला शोषण का शिकार नहीं होना पड़ता?

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  10. पुस्तक की विषयवस्तु की झलक भी मिल गयी और Saleable Writing का कंसेप्ट भी। सच है कि लेखक-प्रकाशक विक्रय-योग्यता से आगे सोचने की ज़रूरत ही नहीं समझ रहे हैं। भेद-भाव है इसमें शायद ही किसी को शक़ हो।

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